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Sunday 30 April 2023

मूंदो तो पलकें

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

हो शायद, नीर किसी की नैनों का,
आ छलका हो, पीर उसी का,
या गाते हों, कोई गीत,
समय की धुन पर, हलके-हलके!

मूंदो तो पलकें!

समझ पाओगे, डूबे नैनों में है क्या,
बहता सा क्यूं वो इक दरिया,
झर-झर, बहते वे धारे,
हर-दम रहते क्यूं, छलके-छलके!

मूंदो तो पलकें!

विचलित क्यूं सागर, शायद जानो,
हलचल उसकी भी पहचानो,
तड़पे क्यूं, आहत सा,
लहरें तट पर, क्यूं, बहके-बहके!

मूंदो तो पलकें!

चुप-चुप हर शै, जाने क्या कहता,
बहते से, एहसासों में रमता,
कभी, भर आए मन,
जज्बात कभी ये, लहके-लहके!

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 16 January 2023

दिल न जाने कहां


दिल था यहीं, अब न जाने कहां?
आ ही उतरा, जमीं पर,
वो आसमां!

कैसे मूंद लूं, ये दो, पलकें,
रोक लूं कैसे, ये आंसू जो छलके,
सम्हाले, न संभले,
ले चला, मुझको किधर!
वो कारवां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?

ख़ामोश है, कितनी दिशा,
चीखकर, कभी, गूंजती है निशा,
चुप रौशनी के साये,
यूं बुलाए, मुझको किधर!
वो कहकशां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?

हो शायद, वो फलक पर!
लिए तस्वीर, उनकी पलक पर!
सम्हाले, आस कोई,
ले चला, मुझको किधर!
वो बागवां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?
आ ही उतरा, जमीं पर,
वो आसमां!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 7 November 2022

क्षणभंगुर


ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

पलकों में, बूटे उग आए थे,
शायद, मेरी ख्वाबों के, वो सरमाए थे!
और, नैन तले, छाए काले घन,
अंतः, मेघों सा गर्जन,
लिए अधीर मन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

सोचे, अब, कैसे ये ख्वाब!
कैसा ये पागलपन, पाले क्यूं, उलझन!
टूट जाते, सावन में ही ये घन,
बिखर जाते हैं, तन,
क्यूं दीवानापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

क्षण-भंगुर, मेघों के साए,
क्षण भर ही, भाएंगी इनकी क्षणिकाएं,
मुड़ जाएंगे, जाने किस ओर,
ढूंढोगे, कल ये शोर,
फिरोगे, वन-वन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

फिर से ये बूटे, ना उगने दो,
फिर, ख्वाबों के सरमाए, ना बनने दो,
नभ पर, घन आएं, बरस जाएं,
ना ही, ख्वाब दिखाएं,
ना ही अपनापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 29 October 2022

मैं चाहूँ

मैं चाहूँ....

ह्रदय पर तेरे, कोई प्रीत न हो अंकित,
कहीं, मेरे सिवा,
और, कोई गीत न हो अंकित!
बस, सुनती रहो तुम,
और मैं गांऊँ!

मैं चाहूँ....

नैन पटल पर, तेरे, उभरे ना रंग कोई,
मैं ही, उभरूं,
क्षितिज के, सिंदूरी अलकों से,
उतरूं, तेरी पलकों में,
यूं ही, संवरूं!

मैं चाहूँ....

कोई दूजी ना हो, और, कहीं कल्पना,
इक, मेरे सिवा,
उभरे ना, सिंदूरी कोई अल्पना,
बस, सजती रहो तुम,
और, मैं देखूं!

मैं चाहूँ....

मध्य कहीं, रह लो तुम व्यस्त क्षणों में,
छू जाओ तन,
मंद सलिल बन, सांझी वनों में,
दे जाओ, इक एहसास,
मन, रंग लूं!

मैं चाहूँ....

तेरी खुशबू, ले आए मंद बयार कोई,
बस, मुझ तक,
रुक जाए, वो महकी पुरवाई,
यूं, मंत्रमुग्ध करो तुम,
मैं खो जाऊं!

मैं चाहूँ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 7 August 2021

उड़ता आँचल

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक, बादल हो तुम!

कभी, किरणों संग, उतर कर, 
चली आई, जमीं पर,
झूल आई, कभी आसमां पर,
कभी, सितारों का इक,
कारवाँ हो तुम!

छल जाए, मन को...

सांझ सा, एक बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा,
पर, गुजारे हैं, पल सारे यहीं,
रूठी हुई, उम्मीदों का,
सहारा हो तुम!

छल जाए, मन को...

भटका सा, कोई आवारा घटा,
चुरा ना ले, तेरी छटा,
स॔भाल दूँ, आ ये आँचल जरा,
एक अल्हड़ सी कोई,
रवानी हो तुम!

छल जाए, मन को...

जरा देख लूँ, तुझे निष्पलक,
निहार लूँ, अ-पलक,
बदलता, बहुरूपिया फलक,
आकाश में, घुली सी,
चाँदनी हो तुम!

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक बादल हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 16 May 2021

गूढ़ बात

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

उनींदी सी, खुली पलक,
विहँसती, निहारती है निष्पलक,
मूक कितना, वो फलक!
छुपाए, वो कोई, 
इक राज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

लबों की, वो नादानियाँ,
हो न हो, तोलती हैं खामोशियाँ,
सदियों से वो सिले लब!
दबाए, वो कोई,
इक बात है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

हो प्रेम की, ये ही भाषा,
हृदय में जगाती, ये एक आशा,
यूँ ना धड़कता, ये हृदय!
बजाए, वो कोई,
इक साज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 April 2021

अश्क जितने

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में,
बंध न पाएंगे, परिधि में!

बन के इक लहर, छलक आते हैं ये अक्सर,
तोड़ कर बंध,
अनवरत, बह जाते है,
इन्हीं, दो नैनों में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में..

हो कोई बात, या यूँ ही बहके हों ये जज्बात, 
डूब कर संग,
अश्कों में, डुबो जाते हैं,
पल, दो पल में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

कब छलक जाएँ, भड़के, और मचल जाएँ,
बहा कर संग,
कहीं दूर, लिए जाते है,
सूने से, आंगण में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

रोके, ये रुके ना, बन्द पलकों में, ये छुपे ना,
कह कर छंद,
पलकों तले, कुछ गाते हैं,
खुशी के, क्षण में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

जज्बात कई, अश्कों से भरे ये सौगात वही,
भिगो कर संग,
अलकों तले, छुप जाते हैं,
गमों के, पल में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...
बंध न पाएंगे, परिधि में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 31 August 2020

रुक जरा

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

चुप-चुप, ये गुनगुनाता है कौन?
हलकी सी इक सदा, दिए जाता है कौन?
बिखरा सा, ये गीत है!
कोई अनसुना सा, ये संगीत है!
है किसकी ये अठखेलियाँ,
कौन, न जाने यहाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

उनींदी सी हैं, किसकी पलक?
मूक पर्वत, यूँ निहारती है क्यूँ निष्पलक?
विहँस रहा, क्यूँ फलक?
छुपाए कोई, इक गहरा सा राज है!
कौन सी, वो गूढ़ बात है?
जान लूँ, मैं जरा!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

कोई लिख रहा, गीत प्यार के!
यूँ हवा ना झूमती, प्रणय संग मल्हार के?
सिहरते, न यूँ तनबदन!
लरजते न यूँ, भीगी पत्तियों के बदन!
यूँ ना डोलती, ये डालियाँ!
कैसी ये खामोशियाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 17 March 2020

रातों की गहराई में

रातों की गहराई में!
जब ये सृष्टि सारी, ढ़ँक जाती है,
प्रयत्न करता हूँ फिर मैं भी,
खुद को ढ़ँक लेने की,
जीवन के कड़वे सच से,
मुँह मोड़ लेने की,
दिन सा मैं भी,
अंधियारों में छुप जाता हूँ,
संज्ञाहीन बन जाता हूँ,
बिछ जाती है रातों की चादर,
सत्य, जरा ढ़ँक जाता है,
पर, अन्दर, 
फूलती-चलती है साँसें, 
गहराता है सत्य,
जग उठती है, ये शुन्य मति,
टूटती है संज्ञाहीनता,
भान सा होता है,
दूर क्षितिज पे कहीं,
फूटती है रौशनी,
सत्य, भला कब सोता है,
रातों की गहराई में!

गहराते अंधियारे में!
सन्नाटों के, बढ़ते शोर-शराबे में,
सत्य, कहाँ घबराता है,
हरपल अडिग,
अनवरत संघर्षरत,
कर देता है,
अंधियारे को नतमस्तक,
खुल जाते हैं चौंधकर, 
मेरे दो पलक,
विस्मयकारी यह सत्य,
सोचता है मन,
क्या,
मुँह मोड़ लेना,
ही है
जीवन?
जलता-बुझता है क्षितिज,
आजीवन!
नित ले आती है,
नई प्रभा,
चकाचौंध आभा,
जग पड़ती है, सोई संज्ञा,
रातों की गहराई में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 1 October 2016

पलकों की छाँव

छाँव उन्हीं पलकों के, दिल ढूंढता है रह रहकर....

याद आता हैं वो पहर, जब मिली थी वो नजर,
खामोशी समेटे हुए, हँस पड़ी थी वो नजर,
चिलचिलाती धूप में, छाँव दे गई थी वो नजर,
वो पलकें थी झुकी और हम हुए थे बेखबर......

है दर्द के गाँवों से दूर, झुकी पलकों के वो शहर....

बेचैन सी कर जाती है जब तन्हा ये सफर,
जग उठते हैं दिल में जज्बातों के भँवर,
एकाकी मन तब सोंचता है तन्हाईयों में सिमटकर,
काश वो पलकें बन जाती मेरी हमसफर ........

छाँव उन्हीं पलकों के, दिल ढूंढता है रह रहकर....

Thursday 26 May 2016

खुशफहमी

इन वादियों में इस शाम को फिर आज सुरमई कर लूँ.....

गुनगुनाती हुई इन फिजाओं में,
फिर भूला सा कोई गजल मैं भी कह लूँ,
कचनार कहीं फिर घुली हवाओं में,
अपनी गजलों में कुछ ताजगी मैं भर लूँ,
नकाब रुखसार से हटे जब आपकी,
उन लरजते होठों पे शबनमी गीत कोई मैं लिख दूँ।

ये वादियाँ हैं खुशफहमी की,
फिर भरम कोई प्रीत का मन में रख लूँ,
गजलों में ढ़लती उन फिजाँओं संग,
उनकी वजूद का कुछ वहम मैं संग कर लूँ,
वो चंपई रुखसार दिखे जब आपकी,
ढ़लती हुई इस शाम को गीतों से मैं सुरमई कर दूँ।

सज गई हैं अब कतारें फूलों की,
रंग कोई प्यार का फूलों से मैं भी माँग लूँ,
ऐ मन, गीत नया फिर कोई तू सुना,
उन गीतों में साज दिलों के मैं भी छेड़ लूँ,
गिर के पलकें फिर उठे जब आपकी,
फूलों के वो रंग उन पलकों में प्यार से मैं भर दूँ।

ढ़लती हुई इस शाम को फिर आज सुरमई कर लूँ.....

Wednesday 11 May 2016

मुझसे मिली जिन्दगी

उस झील सी आँखों में अब तैरती ये जिन्दगी।

जिन्दगी अभ्र पर ही थी मेरी कहीं,
आज मुझसे आकर मिली झूमती वो वहीं,
नूर आँखों मे लिए वही दिलकशीं,
कह रही मुझसे तू आ के मिल ले कहीं।

हँस पड़ी जिन्दगी पल भर को मेरी,
बन्द लब्जों से ही करने लगी वो बातें कईं,
रंग होठों पे लिए फिर वही शबनमी,
कह रही जिन्दगी तू रोज आ के मिल कहीं।

मैं दिखा उन लकीरों में ही बंद कही,
उनकी हाथों में जब लकीरें असंख्य दिखीं,
स्नेह पलकों पे लिए हाथ वो पसारती,
कहने लगी जिन्दगी दूर मुझसे जाना नहीं।

उस अभ्र पर बादलों में अब तैरती ये जिन्दगी।

Sunday 24 April 2016

निःशब्द

निःशब्द कोई क्युँ बिखरे इस धरा पर,
निष्प्राण जीवन कैसे रह पाए इस अचला पर,
बिन मीत कैसे सुर छेड़े कोई यहाँ पर,
आह! स्वर निःशब्दों के निखरते आसमाँ पर।

प्रखर हो रहे हैं अब, निःशब्द चाँदनी के स्वर,
मूक शलभ ने भी ली है फिर यौवन की अंगड़ाई,
छेड़ी है निस्तब्ध निशा ने अब गीत गजल कोई,
तारों के संग नभ पर सिन्दूरी लाली छाई।

कपकपी ये कैसी उठी, निःशब्दो के स्वर में,
आ छलके है क्यूँ नीर, निःशब्दों के इन पलकों में,
हृदय उठ रही क्यूँ पीर निःशब्दों के आलय में,
काश! कोई तो गा देता गीत निःशब्दों के जीवन में।

Thursday 21 April 2016

मन में प्रतीक्षा के ये पल

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सुन ओ मीत मेरी,
प्रतीक्षा की उन्मादित पल के,
गीत वही फिर गाता है मन,
तेरी कल्पित मधुर प्रतीक्षा के।

गीत गाती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सिहरन बिजुरी सी,
कैसी प्रतीक्षा की इस क्षण में,
ये राग बज रहे विषम,
आस-निराश की उलझन में।

सुलगती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षा की ये घड़ियाँ,
होते मादक मिलन के पल से,
तरंग पल-पल उठते,
सिहरित आशा की आँगन में।

तरंगित होती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

ओ मेरे प्रतीक्षित मीत,
प्रतीक्षा की पल को तु कर दे विस्तृत,
धुन वही एक तेरी होती रहें तरंगित,
पलकें बिछ जाएँ बस इक तेरी आशा में।

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

Tuesday 19 April 2016

अधूरे सपने

अधूरे सपने ! ये संग-संग ही चलते है जीवन के!

अधूरे ही रह जाते कुछ सपने आँखों में,
कब नींद खुली कब सपने टूटे इस जीवन में,
कब आँख लगी फिर जागे सपने नैनों में।

अधूरे सपने ! सोते जगते साथ साथ ही जीवन में!

सपनों की सीमा कहीं उस दूर क्षितिज में,
पंख लगा उड़ जाता वो कहीं उस दूर गगण में,
कब डोर सपनों की आ पाई है हाथों में।

अधूरे सपने ! पतंगों से उड़ते जीवन के नील गगन में!

पलकों के नीचे मेरी सपनों का रैन बसेरा,
बंद होती जब ये पलकें सपनों का हो नया सवेरा,
अधूरे उन सपनो संग खुश रहता है मन मेरा।

अधूरे सपने ! ये प्यार बन के पलते हैं मेरे हृदय में।

Saturday 16 April 2016

ख्वाब की बातें

वो ख्वाब, अाधा अधूरा, न जाने कहाँ इन पलकों में?

कुछ सुनहरे ख्वाब, रख छोड़े थे मैनें सहेज कर,
पलकों के पीछे लिपटे गीले कोरों में रख कर,
सो जाती थी वो, जागी पलकों में रो-रोकर,
फिर कभी जग जाती वो, बंद पलकों में हँस कर।

ख्वाब वो वर्षों से चुप, पलकों के गीले छावन में,
सूख रही हो, टूटी सी टहनी जैसे आँगन में,
जा बैठी हो कोई तितली, एक कटीली झाड़ी में,
अधूूरा ख्वाब वो, तिलमिला सा उठता आँखों में।

सोचता हूँ अब, काँच से ख्वाब पाले थे क्युँ मैंने,
ओस की बूँदें, क्या ठहरी है कभी बादल में?
संगीत अधूरा सा, क्या झंकृत हो पाया है जीवन में?
बरस परती हैं ये आँखें, टूटे ख्वाबो के संसर्ग में।

वो सुनहरा ख्वाब, अब अधूरा, न जाने कहाँ पलकों में?

बोझिल पलकें

धूल मैं उन राहों की, जिन राहों पे है मेरा प्रीतम वो।

नयन अभिराम निहारती हैं, बस अब राह वो,
जिस दुरूह पथ पर, चल पड़ा था मेरा अंजान वो,
छूटे थे दामन जहाँ, छूटा जहाँ था हाथ वो,
निष्पलक नैन निहारते, राह भूली अब दिन रात वो।

अविरल भीगीं से नैन, बोझिल सी पलकें हैं वो,
बस यादों में अंजान की, अनवरत खोई सी है वो,
लग रहा अंजान अब, शक्ल पहचानी सी वो,
दिल मे बसते थे कभी, बेगाने से अब लगते हैं वो।

चुभ रहे कील से अब, याद बनकर दिल में वो,
हसरत फूलों की थी, उजड़ा है अब गुलशन ही वो,
यादों में मूरत है उसकी, अब सपनों मे बस वो,
धूल मैं उन राहों की, जिन राहों पे है मेरा प्रीतम वो।

Sunday 27 March 2016

प्रेयसी

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही स्वप्निल झील सी नीली आँखें,
मदमाई अलसाई झुकी हुई सी पलकें,
काले-काले इन नैनों में नींद के पहरे,
जिक्र बादलों का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही होठ अधखुले दो पंखुड़ियाँ से,
लरजते, कांपते, शबनम की बूंदों में डूबे,
लालिमा इन पर सूरज की किरणों के,
जिक्र गुलाब का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही चेहरा चांदनी में धुला आभामय,
हसीन नूर सा रेशमी अक्श मुख पर लिए,
अक्श रुहानी जैसे दीप जली मन्दिर में,
जिक्र पूजा का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

Monday 22 February 2016

कर्मपथ की ओर

तू नैन पलक अभिराम देखता किस ओर,
देख रहा वो जगद्रष्टा निरंतर तेरी ओर,
इस सच्चाई से अंजान तू देखता किस ओर।

तू कठपुतली है मात्र उस द्रष्टा के हाथों की,
डोर लिए हाथों मे वो खीचता बाँह तुम्हारी,
सपनों की अंजान नगर तू देखता किस ओर।

निरंकुश बड़ा वो जिसकी हाथों में तेरी डोरी,
अंकुश रखता जीवन पर खींचता डोर तुम्हारी,
उस शक्ति से अंजान तू सोचता किस ओर।

कर्मों के पथ का तू राही नैन तेरे उस ओर,
कर्मपथ पर निश्छल बढ़ता चल कर्मों की ओर,
मिल जाएगी तेरी मंजिल उस द्रष्टा की ओर।