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Sunday, 25 September 2022

अन्तर्निहित


निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

फूलों का, यूं खिल आना,
निरर्थक, कब था!
अर्थ लिए, आए वो, मौसम के बदलावों में, 
मुकम्मल सा, श्रृंगार कोई!

हवाओं में घुलते कलरव,
इक संशय में, सब,
रीत, ये कैसा, राग कौन सा, पिरोए विहग!
या अर्थपूर्ण, विहाग कोई!

नत-मस्तक, इक बादल,
शीष उठाए, पर्वत,
अधूरे से दोनों, दोनों ही इक दूजे के पूरक,
भावप्रवण ये, प्रीत कोई!

चुपचुप गुमसुम सी रात,
अर्थपूर्ण, हर बात,
उस छोर, वही लिख जाती सुरीली प्रभात,
रहस्यमई, जज्बात कोई!

निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 6 November 2019

दूर हैं वो

दूर हैं वो, पल भर को, जरा सा आज!
तो, खुल रहे हैं सारे राज!
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, जिन्दा है, मुझमें भी एक एहसास!

थे वो, कल तक, कितने ही पास,
तो, न थी कहीं, कोई कमी,
बस, फिक्र में थी, कहीं वो ही ज़मीं!
रोज, थी अनर्गल सी हजारों बातें,
अनर्थक, बेफिक्र कई जिक्र,
निरर्थक सी, कभी लगती थी जो,
वही थी, अर्थपूर्ण सी सौगातें,
न थी, उनकी ललक,
हर शै, उनकी ही थी झलक,
झंकृत था, हर ईक कोना,
लगता था, जरूरी है कहीं एक घर होना!
खल गई है, जरा सी दूरी,
पर, है जरूरी, पल भर को ये भी दूरी,
ताकि, जगता रहे ये एहसास,
मानव न हो जाए पत्थर,
कोई दूरी, दरमियाँ, न जन्म ले उत्तरोत्तर!

दूर हैं वो, कुछ पल को, जरा सा आज!
तो, मैं मुझको ही, ढूंढ़ता हूँ आज !
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, बचा है, मुझमें भी एक एहसास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा