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Saturday, 27 November 2021

अक्सर

अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

यूँ, रुक भी ना सकूं, इस मोड़ पर,
सफर के, इक लक्ष्य-विहीन, छोर पर,
अक्सर, खुद को, रोकता हूँ,
अन्तहीन पथ पर, ठांव ढ़ूंढ़ता हूँ!

ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

अपनत्व, ज्यूं हो महज शब्द भर,
बेगानों में, लगे सहज कैसे, ये सफर,
अक्सर, प्रश्नों में, डूबता हूँ,
ममत्व भरा, वही गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ!

कभी, यूँ ही रहा, लबों को सी के,
जाने कब, हम हुए, पीकू. से. पी.के.,
अक्सर, खुद को, टोकता हूँ,
इस सांझ में, इक भोर ढ़ूंढ़ता हूँ!

अक्सर, वो बिसरा गाँव ढ़ूंढ़ता हूँ,
ज्यूं, चिलचिलाती धूप में, इक छाँव ढ़ूंढ़ता हूँ

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)