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Sunday, 11 October 2020

जिद्दी जमीं

खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!

खुद में छिपाए, प्राण कितने!
पिरोए, जीवन के, अवधान कितने,
जीवन्त रखते, अरमान कितने!
जरा सा, थम सी जाती है,
जिद्दी जमीं!

भला, वो बीज, सोता है कब!
वो गगण फिर, रक्ताभ होता है जब,
अंकुरित होते हैं, प्राण कितने!
फिर से, विहँस पड़ती है,
जिद्दी जमीं!

निष्फल, रहता नित कामरत!
सर पे धूप ढ़ोता, जूझता अनवरत,
नित लांघता, व्यवधान कितने!
पुन:श्च, गोद भर जाती है,
जिद्दी जमीं!

खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)