खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!
खुद में छिपाए, प्राण कितने!
पिरोए, जीवन के, अवधान कितने,
जीवन्त रखते, अरमान कितने!
जरा सा, थम सी जाती है,
जिद्दी जमीं!
भला, वो बीज, सोता है कब!
वो गगण फिर, रक्ताभ होता है जब,
अंकुरित होते हैं, प्राण कितने!
फिर से, विहँस पड़ती है,
जिद्दी जमीं!
निष्फल, रहता नित कामरत!
सर पे धूप ढ़ोता, जूझता अनवरत,
नित लांघता, व्यवधान कितने!
पुन:श्च, गोद भर जाती है,
जिद्दी जमीं!
खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुन्दर
ReplyDeleteआभार आदरणीय
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 12 अक्टूबर 2020) को 'नफ़रतों की दीवार गहरी हुई' (चर्चा अंक 3852 ) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सादर आभार
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 11 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार
Deleteसुन्दर कविता
ReplyDeleteसादर आभार
Deleteबहुत सुन्दर सृजन .
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteवाह, जिद्दी जमीन के जिद्दीपन में ही जीवन का सृजन है. आपका चिंतन लाजवाब है 👌👌🙏🙏
ReplyDeleteहृदयतल से आभार आदरणीया रेणु जी।
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