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Sunday 19 January 2020

यूँ बन्दगी में

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

ऐ हवाओं! झूल जाती हैं पत्तियाँ,
शाखें, टूट जाते हैं यहाँ,
धूल, जम जाती हैं दरमियाँ,
बस, खता माफ करना,
भूल जाना, जफा,
याद रख लेना पता, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! जल न जाए चिंगारी,
बुझी है जो, आग सारी,
न टूट जाए, फिर ये खुमारी,
बस, जरा एहसास देना,
साँस, भर जाना, 
हौले से बह जाना, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! रुख ना तुम बदलना,
छुवन, ये सहेज रखना,
खल न जाए, कमी तुम्हारी,
बस, परवाह कर लेना,
प्रवाह, दे जाना,
ठहर जाना कभी, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 8 December 2019

ये सांझ कैसे

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

कल-कल बही थी, इक धार सी ये!
अभी तो, शुरुआत थी, इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से ये धार कैसे?

लेनी थी अभी , चैन की चँद साँसें!
अभी तो, पहली थी, साँस एहसास की,
सिमटने लगी, है ये एहसास कैसे?

विस्मृत कर गई थी, यूँ ये क्षितिज!
फैली थी, अभी तो, ये किरण भोर की,
छाने लगी, अभी से ये रात कैसे?

सिमटते हैं कैसे, प्रबल से प्रवाह ये!
अभी तो, उत्थान थी, ये इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से प्रवाह कैसे?

समेटा है किसने, आँचल गगन से!
सजी थी, अभी तो, गगन ये दुल्हन सी,
हुई बेरंग, गगन ये आज ही कैसे?

जगते ही चाह, छूट जाते हैं ये राह!
अभी था जीवन, अब है परवाह इसकी,
बदलते रहे, ये जीवन के राह कैसे!

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)