साथ चले होते, कुछ पल,
संशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही!
नीला सा, अपना भी आकाश!
हठात्, करता क्या अम्बर,
अकस्मात्, टूटा था इक विश्वास,
निर्णय-अनिर्णय के, उस दोराहे पर,
उभर आए, कितने ही सागर,
व्याकुल, लहर-लहर!
ज्यूँ, सावन में, हो पतझड़,
पात-पात, टूट बिखरे राहों पर,
मन्द हो चला हो, सावन का माधुर्य,
सांसें उखरी हों, उम्मीदों की,
अन्तः, टूटा हो स्वर!
सुलझा लेना था, संशय,
दोराहों को, दे देना था आशय,
एक पथ, पहुँचा देती मंजिल तक,
सहज, दूर होता असमंजस,
राहों में, ठहर-ठहर!
पर, हावी थी इक जिद,
अहम, प्रभावी था निर्णय पर,
रिश्ते शर्मसार हुए थे, दोराहों पर,
संज्ञा-शून्य हुए, मानव मूल्य,
तिरस्कृत, हो कर!
दर्पण, अक्श दिखाएगा,
तुझसे वो जब, नैन मिलाएगा,
पूछेगा सच, क्यूँ छोड़ा तुमने पथ?
डुबोई क्यूँ, तुमने इक नैय्या,
साहिल पर, लाकर!
साथ चले होते, कुछ पल,
संशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही,
नीला सा, अपना भी आकाश!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
साथ चले होते, कुछ पल,
ReplyDeleteसंशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही,
नीला सा, अपना भी आकाश....बहुत सुंदर लिखते है आप
विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
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ReplyDeleteदर्पण, अक्श दिखाएगा,
तुझसे वो जब, नैन मिलाएगा,
पूछेगा सच, क्यूँ छोड़ा तुमने पथ?
डुबोई क्यूँ, तुमने इक नैय्या,
साहिल पर, लाकर!..भावों भरी हृदय स्पर्शी रचना..
विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 15 -03 -2021 ) को राजनीति वह अँधेरा है जिसे जीभर के आलोचा गया,कोसा गया...काश! कोई दीपक भी जलाता! (चर्चा अंक 4006) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 14 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteबहुत खूब लिखा सिन्हा साहब कि ...पर, हावी थी इक जिद,
ReplyDeleteअहम, प्रभावी था निर्णय पर,
रिश्ते शर्मसार हुए थे, दोराहों पर..वाह
विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteवाह! बहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteबहुत सुन्दर और सार्थक।
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteसाथ चले होते, कुछ पल,
ReplyDeleteसंशय के उन दोराहों पर, काश!
था, वहीं कही,
नीला सा, अपना भी आकाश!
बहुत खूब बहुत ही सुंदर रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी
विनम्र आभार। मेरी ब्लॉग पर स्वागत है आपका। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय राजपुरोहित जी।।।
Deleteबहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति आदरणीय सर।
ReplyDeleteमन को छूते भाव।
सादर नमस्कार।
विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया अनीता जी।।।।। मैं तो खुद आपकी लेखनी का प्रशंसक हूँ। ।।।।।
Deleteबहुत सुंदर रचना ! जो एक बार साथ चले हैं वे आगे भी चल तो सकते थे न, क्यों भूल जाते हैं अपनी ही गरिमा को, उन पलों को जो गुजारे थे साथ-साथ, उस आकाश को जिसके नीचे चले थे दो ही कदम पर साथ-साथ..
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया अनीता जी।।।।
Deleteज़िन्दगी में आते हैं ऐसे पल कि लगता है दोराहे पर खड़े हैं . निर्णय लेना कठिन होता है ... कभी सब बिखर जाता है तो कभी सब्र रख लेने पर सुधर भी जाता है ... भावपूर्ण रचना .
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया संगीता जी।।।।
Deleteसुलझा लेना था, संशय,
ReplyDeleteदोराहों को, दे देना था आशय,
एक पथ, पहुँचा देती मंजिल तक,
सहज, दूर होता असमंजस,
राहों में, ठहर-ठहर!
सम्मोहक रचना, शानदार।
हार्दिक बधाई पुरुषोत्तम जी।
विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया सधु जी।।।।
Deleteहमेशा की तरह भावों व शब्दों का सौंदर्य बिखेरती रचना मुग्ध करती है।
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शान्तनु जी।।।।
Deleteबहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति है यह पुरूषोत्तम जी आपकी ।
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
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