चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
कई प्रश्नों ने, आ घेरा है आकर!
अक्सर, अपनी ओर, खींचती है, ऊँचाई,
न जाने, कहाँ से बुन लाई!
ये जाल, भ्रम के...
एकाकी खुद ये, किसी को क्या दे!
अवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
उकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
दुर्गम सी, ये राहें...
बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!
अवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
देखी ही कब इसने गहराई,
चेतनाओं, से परे....
विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!
चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
इक शून्य ने, आ घेरा है आकर!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुंदर। रचना।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय शिवम जी
Deleteजीवन दर्शन की भावपूर्ण व्याख्या करती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया जिज्ञासा जी। ।।आभारी हूँ। ।।
Deleteऊँचाइयाँ जीवन में अनगिन उलझनें और एकांत का उपहार देती है। सबसे दूर ऊँचाई पर बैठे मन का एकांत प्रलाप पुरुषोत्तम जी। वैभव से घिरा व्यक्तित नितांत अकेला पड़ जाता है🙏🙏
ReplyDelete🙏आभारी हूँ आदरणीया। ।।।
Deleteअवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
ReplyDeleteदेखी ही कब इसने गहराई,
चेतनाओं, से परे....
विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!
👌👌👌🙏🙏
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteआपकी लिखी कोई रचना सोमवार 3 मई 2021 को साझा की गई है ,
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
शुक्रिया आदरणीया संगीता जी।
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-05 -2021 ) को भूल गये हैं हम उनको, जो जग से हैं जाने वाले (चर्चा अंक 4055) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
शुक्रिया आदरणीय रवीन्द्र जी।
Deleteअवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
ReplyDeleteउकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
दुर्गम सी, ये राहें...
बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!---बहुत अच्छा लेखन।
विनम्र आभार आदरणीय संदीप जी।
Deleteसुंदर। रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया उषा किरण जी।
Deleteसुंदर। रचना
ReplyDelete🙏🙏
Deleteसुंदर। रचना
ReplyDelete🙏🙏
Deleteबहुत सुन्दर और सटीक लेखन
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया सुजाता जी।
Deleteआदरणीय सर, बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना है यह । आपकी इस रचना ने मुझे अंग्रेजी की एक कहावत याद दिला दी "many people may get success, not everyone can handle it", जीवन में सफलता या वैभव की ऊंचाई पाना हर किसी की इच्छा होती है पर इसे पाने में बहुत सतर्क भी रहना होता है कि कहीं ऊंचाई पर आ कर हम एकाकी न हो जाएं । शायद सब को साथ लेकर यदि ऊंचाई की ओर जाएँ तो यह समस्या न आए। हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम ।
ReplyDeleteओह! विस्तृत व्याख्या व उदाहरण सहित विलक्षण प्रतिक्रिया हेतु शुक्रिया सु.अनंता। इस प्रतिक्रिया में आपके प्रतिभा की झलक मिलती है। आपके लिए समस्त शुभकामनाएँ व आशीष ।।।।
Deleteउलझनों से शून्य तक का खूबसूरत सफर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद प्रीति जी।
Deleteबहुत बढ़िया कविता पुरुषोत्तम जी।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय अरुण जी।
Deleteअवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
ReplyDeleteउकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
दुर्गम सी, ये राहें...
बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!
दर्शन की गहराइयों को छूती रचना!--ब्रजेंद्रनाथ
विनम्र आभार आदरणीय मर्मज्ञ जी।
Deleteवाकई बेहतरीन है। आपसे सीखने की लालसा है। ये कैसे संभव होगा...कोई माध्यम बताइए।
ReplyDeleteशुक्रिया प्रकाश जी।
Deleteपर मैं तो एक साधारण सा व्यक्ति हूँ, और Banking Job में बंजारा। हर दूसरे-तीसरे वर्ष राज्य ही बदल जाता है।
इतना मान देने के लिए आभारी हूँ आपका।
जी वाह! फिर भी आप इतना बेहतरीन समय निकाल लेते हैं...इतनी बेहतरीन रचनाएँ लिखने के लिए। वाकई आप अद्भुत एवं अद्वितीय हैं।
Deleteआप यूं ही लिखते रहें...मैं आपकी रचनाओं से ही सीखने का प्रयास करता रहूंगा।
🙏🙏🙏
Deleteअवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
ReplyDeleteदेखी ही कब इसने गहराई,
चेतनाओं, से परे....
विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!
ऊँचाइयों की चाहत कभी चैन से जीने नहीं देती और जब हासिल होती है तो तन्हाइयों के सिवा कुछ और नहीं......। ये ऊँचाइयाँ नीचे से देखने में ही अच्छी लगती हैं और मन को लालायित करती हैं....।
बहुत सुन्दर सार्थक लाजवाब सृजन।
रचना की आत्मा को छूती हुई इस प्रतिक्रिया हेतु विनम्र आभार आदरणीया सुधा देवरानी जी।
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