Sunday, 2 May 2021

ऊँचाई

चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
कई प्रश्नों ने, आ घेरा है आकर!

अक्सर, अपनी ओर, खींचती है, ऊँचाई,
न जाने, कहाँ से बुन लाई!
ये जाल, भ्रम के...
एकाकी खुद ये, किसी को क्या दे!

अवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
उकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
दुर्गम सी, ये राहें...
बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!

अवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
देखी ही कब इसने गहराई,
चेतनाओं, से परे....
विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!

चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
इक शून्य ने, आ घेरा है आकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

36 comments:

  1. जीवन दर्शन की भावपूर्ण व्याख्या करती सुंदर रचना ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया जिज्ञासा जी। ।।आभारी हूँ। ।।

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  2. ऊँचाइयाँ जीवन में अनगिन उलझनें और एकांत का उपहार देती है। सबसे दूर ऊँचाई पर बैठे मन का एकांत प्रलाप पुरुषोत्तम जी। वैभव से घिरा व्यक्तित नितांत अकेला पड़ जाता है🙏🙏

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  3. अवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
    देखी ही कब इसने गहराई,
    चेतनाओं, से परे....
    विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!
    👌👌👌🙏🙏

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  4. आपकी लिखी कोई रचना सोमवार 3 मई 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  5. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-05 -2021 ) को भूल गये हैं हम उनको, जो जग से हैं जाने वाले (चर्चा अंक 4055) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  6. अवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
    उकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
    दुर्गम सी, ये राहें...
    बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!---बहुत अच्छा लेखन।

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  7. Replies
    1. विनम्र आभार आदरणीया उषा किरण जी।

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  8. बहुत सुन्दर और सटीक लेखन

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  9. आदरणीय सर, बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना है यह । आपकी इस रचना ने मुझे अंग्रेजी की एक कहावत याद दिला दी "many people may get success, not everyone can handle it", जीवन में सफलता या वैभव की ऊंचाई पाना हर किसी की इच्छा होती है पर इसे पाने में बहुत सतर्क भी रहना होता है कि कहीं ऊंचाई पर आ कर हम एकाकी न हो जाएं । शायद सब को साथ लेकर यदि ऊंचाई की ओर जाएँ तो यह समस्या न आए। हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम ।

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    1. ओह! विस्तृत व्याख्या व उदाहरण सहित विलक्षण प्रतिक्रिया हेतु शुक्रिया सु.अनंता। इस प्रतिक्रिया में आपके प्रतिभा की झलक मिलती है। आपके लिए समस्त शुभकामनाएँ व आशीष ।।।।

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  10. उलझनों से शून्य तक का खूबसूरत सफर

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  11. बहुत बढ़िया कविता पुरुषोत्तम जी।

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  12. अवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
    उकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
    दुर्गम सी, ये राहें...
    बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!
    दर्शन की गहराइयों को छूती रचना!--ब्रजेंद्रनाथ

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  13. वाकई बेहतरीन है। आपसे सीखने की लालसा है। ये कैसे संभव होगा...कोई माध्यम बताइए।

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    1. शुक्रिया प्रकाश जी।
      पर मैं तो एक साधारण सा व्यक्ति हूँ, और Banking Job में बंजारा। हर दूसरे-तीसरे वर्ष राज्य ही बदल जाता है।
      इतना मान देने के लिए आभारी हूँ आपका।

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    2. जी वाह! फिर भी आप इतना बेहतरीन समय निकाल लेते हैं...इतनी बेहतरीन रचनाएँ लिखने के लिए। वाकई आप अद्भुत एवं अद्वितीय हैं।
      आप यूं ही लिखते रहें...मैं आपकी रचनाओं से ही सीखने का प्रयास करता रहूंगा।

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  14. अवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
    देखी ही कब इसने गहराई,
    चेतनाओं, से परे....
    विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!
    ऊँचाइयों की चाहत कभी चैन से जीने नहीं देती और जब हासिल होती है तो तन्हाइयों के सिवा कुछ और नहीं......। ये ऊँचाइयाँ नीचे से देखने में ही अच्छी लगती हैं और मन को लालायित करती हैं....।
    बहुत सुन्दर सार्थक लाजवाब सृजन।

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    1. रचना की आत्मा को छूती हुई इस प्रतिक्रिया हेतु विनम्र आभार आदरणीया सुधा देवरानी जी।

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