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Monday 28 December 2015

धुँधला साया

आँखों मे इक धुंधला सा साया,
स्मृतिपटल पर अंकित यादों की रेखा,
सागर में उफनती असंख्य लहरों सी,
आती जाती मन में हूक उठाती।

वक्त की गहरी खाई मे दबकर,
साए जो पड़ चुके थे मद्धिम,
यादें जो लगती थी तिलिस्म सी,
इनको फिर किसने छेड़ा है?

यादों के उद्वेग भाव होते प्रबल,
असह्य पीड़ा देते ये हंदय को,
पर यादों पर है किसके पहरे,
वश किसका इस पर चलता है।

स्मृतिपटल को किसने झकझोरा,
बुझते अंगारों को किसने सुलगाया,
थमी पानी में किसने पतवार चलाया,
क्युँकर फिर इन यादों को तूने छेड़ा ?

साथ मेरे तुम क्यूँ नही आए

कोलाहल मची है मन के अन्दर,
प्राणों के आवर्त मे भी लघु कंपन,
अपनी वाणी की कोमलता से,
कोलाहल क्युँ ना तुम हर जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्यूँ नही आए।

इक क्षण को तब मिटी थी पीड़ा,
साथ तुम्हारा मिला था क्षण भर,
कोलाहल तब मिटा था मन का,
तुमसंग जीवन जी गया मैं पल भर,
बोलो ! साथ मेरे तुम क्युँ नही आए।

अवसाद मिटाने तुम आ जाते,
जीवन संगीत सुनाने तुम आ जाते,
वीणा तार छेड़ने तुम आ जाते,
जीवन क्लेश मिटानें तुम आ जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्युँ नही आए।