इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...
चुप ही चुप, खामोशियों को तोलते हैं,
न जाने क्यों, कम ही लोग बोलते हैं...
वो गूंगे हैं जो, बस आँखों से तोलते हैं,
चुप ही चुप, न जाने क्या टटोलते हैं...
गर जरूरत हो, तो वे जुबां खोलते हैं,
आगे पीछे वो, गैरों के भी डोलते हैं...
मतलब से, वो जुबाने जहर घोलते है,
जुबा-एँ-खंजर, वो सीने में घोपते हैं...
जुबान पे मिश्री, वो कम ही घोलते हैं,
कहाँ मन को, वो कभी टटोलते हैं...
बीच शहर के, वो हृदय जो खोलते हैं,
पागल है वो!, सब यही बोलते है....
फितरत में, तो बस फरेब ही पलते हैं,
इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...
चुप ही चुप, खामोशियों को तोलते हैं,
न जाने क्यों, कम ही लोग बोलते हैं...
वो गूंगे हैं जो, बस आँखों से तोलते हैं,
चुप ही चुप, न जाने क्या टटोलते हैं...
गर जरूरत हो, तो वे जुबां खोलते हैं,
आगे पीछे वो, गैरों के भी डोलते हैं...
मतलब से, वो जुबाने जहर घोलते है,
जुबा-एँ-खंजर, वो सीने में घोपते हैं...
जुबान पे मिश्री, वो कम ही घोलते हैं,
कहाँ मन को, वो कभी टटोलते हैं...
बीच शहर के, वो हृदय जो खोलते हैं,
पागल है वो!, सब यही बोलते है....
फितरत में, तो बस फरेब ही पलते हैं,
इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...