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Tuesday 13 December 2022

बदलाव

युग किये, समर्पण,
पर अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!
हैरान सा मैं, 
क्यूं आज अंजान सा मैं?

बेगानों सा, ताकता वो मुझको, 
झांकता वो, अंजानों सा,
भुलाकर, युगों का मेरा समर्पण,
बिसरा, वो मुझको!
 
अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

यूं हंसकर सदा, सदियों मिला,
बाग सा, हंसकर खिला,
यूं भुलाकर, सदियों का अर्पण,
दे रहा, कैसा सिला!

अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

हूं अब भी, इक शख्स मैं वही,
जरा शक्ल, बदली सही,
भरकर आगोश में, ये दर्पण,
सदियां बिताई यहीं!

अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

चेहरे पे पड़ी, वक्त की धमक,
हरी झुर्रियों की चमक,
हर ले गईं, मुझसे ये यौवन,
समझा न, नासमझ!

युग किये, समर्पण,
अब ना लगे, उस पहले सा ये दर्पण!
हैरान हूं मैं, 
क्यूं आज अंजान हूं मैं?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 5 September 2021

मझधार मध्य

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

रचे प्रपंच कोई, करे कोई षडयंत्र,
बुलाए पास कोई, पढ़कर मंत्र,
जगाए रात भर, जलाए आँच पर,
हर ले, सुधबुध, रखे बांध कर,
न चाहे, फिर भी, छूटना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ये कैसा अर्पण, कैसा ये समर्पण,
ये कैसी चाहत, ये कैसा सुखन,
दहकती आग में, जले है इक तन,
सदियों, वाट जोहे कैसे विरहन,
न जाने, ये कैसी, साधना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ढ़ूंढ़े मझधार मध्य, इक सुखसार,
बसाए, धार मध्य, कोई संसार,
भिगोए एहसास, धरे इक विश्वास,
रचे गीत, डूबती, हर इक साँस,
न छूटे, मन का ये अंगना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 24 April 2021

टूटता पुरुष दंभ

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

पर तुम थे, बस, दो बातों के भूखे,
स्नेह भरे, दो प्यालों के प्यासे,
आसां था कितना, तुझको अपनाना,
तेरे उर की, तह तक जाना,
कुछ भान हुआ, अब यह मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

दो शब्दों पे ही, तुम खुद को हारे,
निज को भूले, संग हमारे,
था स्वीकार तुझे, निःस्वार्थ समर्पण, 
पुरुष दंभ पर, स्व-अर्पण,
एहसास हो चला, अब ये मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

उर पर, अधिकार कर चले तुम,
हार चले, यूँ पल में हम,
दंभ पुरुष का, यूँ ही शीशे सा टूटा,
मन, कब हाथों से छूटा,
अब तक, भान हुआ ना मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

रिश्तों का, अजूबा यह व्यापार,
कुछ किश्तों में ही तैयार,
इक बंध, अनोखा जीवन भर का,
इक आंगन, दो उर का,
शेष है क्या, भान कहाँ मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 21 February 2020

हे शिव!

हे शिव!

अर्पित है, दुविधा मेरी,
समर्पित, मन की शंका मेरी,
बस खुलवा दे, मेरे भ्रम की गठरी,
उलझन, सुलझ जाए थोड़ी,
जोड़ लूँ, मैं ये अँजुरी!

हे शिव!

क्या, सचमुच भगवान,
मांगते हैं, दूध-दही पकवान,
होने को प्रसन्न, चाहते हैं द्रव्य-दान,
लेते हैं, जीवों का बलिदान,
हूँ भ्रमित, मैं अन्जान!

हे शिव!

भीतर, पूजते वो पत्थर,
बाहर, रौंदते जो मानव स्वर,
निकलूं कैसे, मैं इस भ्रम से बाहर,
पूजा की, उन सीढ़ियों पर,
क्यूँ विलखते हैं ईश्वर?

हे शिव!

जीवन ये, स्वार्थ-प्रवण,
मानव ही, मानव के दुश्मन,
शायद, हतप्रभ चुप हैं यूँ भगवन,
घनेरे कितने, स्वार्थ के वन,
भटक रहा, मानव मन!

हे शिव!

पाप-पुण्य, सी दुनियाँ,
ये, सत्य-असत्य की गलियाँ,
धर्म-अधर्म की, तैरती कश्तियाँ,
बहती, नफरत की आँधियां,
भ्रम, हवाओं में यहाँ!

हे शिव!

अर्पित है, दुविधा मेरी,
समर्पित, मन की शंका मेरी,
बस खुलवा दे, मेरे भ्रम की गठरी,
उलझन, सुलझ जाए थोड़ी,
जोड़ लूँ, मैं ये अँजुरी!

हे शिव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 27 May 2018

प्रार्थना

श्रद्धा सुमन, है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

स्वीकार लो ये मेरी प्रार्थना,
निष्काम निष्कपट मेरी साधना,
भूल कोई भी, गर मैं करूं,
तू ही, बाँहें मेरी थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना यही इक आशीर्वचन....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

कहीं भटकें हो जब राहों में,
विमुख हों कर्मपथ से ये कदम,
खुद पे अहंकार मैं करूं,
तुम मार्गदर्शक बनना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना ज्ञान की ऐसी किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

प्रभा विहीन हो जब प्रभात,
दुष्कर सी हो जब ये काली रात,
अपनी ही साये से मैं डरूं,
तू ही, मशाल थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना प्रकाशित वो ही किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

Monday 18 April 2016

लगन

आच्छादित तुम हृदय पर होते, गर लगन तुझ में भी होती !

मन की इस मंदिर में मूरत उनकी ही,
आराधना के उस प्रथम पल से,
मूरत मेरी ही उनके मन में भी होती,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
स्थापित तुम ही मंदिर में होते, गर लगन तुझ में भी होती !

नाम लबों पर एक बस उनका ही,
समर्पण के उस प्रथम पल से,
लबों पर उनके भी नाम मेरा ही होता,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
प्लावित तुम ही लब पर होते, गर लगन तुझ में भी होती !

हृदय के धड़कन समर्पित उनको ही,
चाहत के उस प्रथम पल से,
समर्पित उनका हृदय भी पूरा हो जाता,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
उन्मादित धड़कन ये तुम करते, गर लगन तुझ में भी होती !

आराधना के फूल अर्पित उनको ही,
पूजन के उस प्रथम पल से,
अर्पित कुछ फूल मुझको भी कर देते,
तो पूजा पूर्ण हो जाती मेरी।
आह्लादित जीवन के पल होते, गर लगन तुझ में भी होती !

Tuesday 15 March 2016

हे माता! कुसुम, मंजरी अर्पित तुम पर ही

हे माता! तुम ही रश्मिप्रभा, तुम मरीचि मेरी।

तुम वसुंधरा, तुम अचला, तुम ही रत्नगर्भा,
तुम वाणीश्वरी, तुम शारदा,महाश्वेता तुम ही,
तुम ही ऋतुराज, कुसुमाकर, तुम मधुऋतु,
धनप्रिया, चपला, इन्द्रवज्र दामिनी तुम ही।

रेत, सैकत हम कल्पतरू परिजात तुम ही।

तुम ही नियति, विधि, भाग्य, प्रारब्ध तुम ही,
तुम कमला, तुम पद्मा, रमा हरिप्रिया तुम ही,
तुम हो मोक्ष, मुक्ति, परधाम, अपवर्ग तुम ही,
तुम हो जननी, जनयत्री, अम्बाशम्भु तुम ही।

तुम रम्य, चारू, मंजुल, मनोहर, सुन्दर तुम ही,
पुष्प, सुमन, कुसुम, मंजरी अर्पित तुम पर ही।