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Tuesday, 12 April 2016

बिखरे सपने

मेरे सपनों की माला में, सजते कुछ ऐसे मोती,
खुशियाँ बिखरती चहुँ ओर, प्रारब्ध इक जैसी होती!

जीवन ऐसे भी धरा पर, बिखरे हैं जिनके सपने,
टूटी हैं लड़ियाँ माला की, बस टीस बची है मन में,
चुन चुनकर मोतियों को, सहेज रखे हैं उसनें,
सपने हसीन लम्हों के, पर उनके जीवन से बेगाने।

प्रारब्ध ही कुछ ऐसा, नियति ही कुछ ऐसी,
खुशियों के असंख्य पल बस हाथों को छूकर गुजरी,
बुनते रहे वो लड़ियाँ ही, मोतियाँ सब दामन से फिसली,
माला उस जीवन की खुद ही टूट-टूट कर बिखरी।

ऎसे भी जीवन जग में, साँसें चँद मिली हैं जिनको,
कैसे होते हैं सुख के पल, झलक भी मिल सकी न उनको,
उनके भी तो जीवन थे, फिर जन्म मिली क्युँ उनको?
किन कर्मों की सजा, उस विधाता नें दी है उनको।

मेरे सपनों की माला में सजते कुछ ऐसे ही मोती,
सपने पूरे कायनात की सजती बस इक जैसी,
हसते खेलते सभी जीवन में, कोलाहल क्रंदन ये कैसी?
खुशियाँ बिखरती धरा पर, प्रारब्ध सब की इक जैसी!

Friday, 5 February 2016

गुड्डे-गुड़िया की कहानी

सुनो सुनाऊँ तुमको एक कहानी,
गुड्डे-गुड़िया की एक जोड़ी थी सुन्दर सी,
मगन थे दोनों अपनी ही दुनियाँ मे,
संसार बसाई थी एक छोटी सी उसने,
किस्मत पे नाज था उन दोनों को,
मजबूत तिनकों से घर बनाई थी दोनों ने।

नन्हे नन्हे तीन फूल उग आए थे आँगन में,
बहार छा गई फिर उनके जीवन में,
कभी फूलों को सहलाते कभी पानी देते,
सुख देकर उनको दुःख उनका हर लेते,
देखते फिर इक दूजे को नाज से,
असीम सुख का अनुभव फिर दोनो कर लेते।

सुख के कांटे चूभे शूल से यम को,
सामना हुआ उनका क्रूर काल वैरागी से,
एक फूल खिलने से पहले ही मुरझाया,
अपनी क्रूर मनमानी काल ने दिखलाया,
फिर क्रूर ने उस सुन्दर गुड़िया को लीला,
टूटी जोड़ी, टूटे सपने, गुड्डा जीते जी मर गया।

जीवन तो जीना था अब भी उस गुड्डे को,
माला यादों की रखता बस हाथों मे अब वो,
चुपचाप ताकता बाग के शेष फूलों को,
सूख चुकी थी अब छोटी सी बगिया वो,
क्लांत मलिन आँखो से टुकटुक तकता वो
विधि का क्रूर विधान देखा अपनी आँखों से वो।

(दिनांक 01.02.2016 को मेरे प्रिय विनय भैया से ईश्वर ने भाभी को छीन लिया। बचपन से मैने उस खूबसूरत जोड़ी को निहारा है और छाँव महसूस भी की। उनके विछोह से आज मन भर आया है, एक संसार आज आँखों के सामने उजाड़ हुआ बिखरा पड़ा है। हे ईश्ववर, यह लीला क्यों? यह पूजा अधूरी क्यों? यह संगीत अधूरा क्यों?)