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Tuesday 15 August 2017

अव्यक्त कहानी

रह गई अब अव्यक्त जो, वही इक कहानी हूँ मैं!

आरम्भ नही था जिसका कोई,
अन्त जिसकी कोई लिखी गई नहीं,
कल्पना के कंठ में ही रुँधी रही,
जिसे मैं  परित्यक्त भी कह सकता नहीं।

चुभ रही है मन में जो, वही इक पीर पुरानी हूँ मैं!

व्यक्त इसे कही करता कोई,
काश! मिल जाता इसे प्रारब्ध कोई,
बींध लेता कोई मन के काँटे कहीं,
असह्य सी ये पीर पुरानी कभी होती नही।

वक्त में धुमिल हुई जो, वही भूली निशानी हूँ मैं!

साहिल पे लिखी गजल कोई,
या रेत में ढली खूबसूरत महल कोई,
बहाकर मौजें लहर की ले चली,
भूली सी वो दास्तां जो अब यादों में नहीं।

व्यक्त फिर से ना हुई जो, वही इक कहानी हूँ मैं!

Saturday 1 July 2017

विरह के पल

सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं.....

आया था जीवन में वो जुगनू सी मुस्कान लिए,
निहारती थी मैं उनको, नैनों में श्रृंगार लिए, 
खोई हैं पलको से नींदें, अब असह्य सा इन्तजार लिए,
कलाई की चूरी भी मेरी, अब करती शोर नहीं,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

इक खेवनहार वही, मेरी इस टूटी सी नैया का,
तारणहार वही मेरी छोटी सी नैय्या का,
मझधार फसी अब नैय्या, धक-धक से धड़के है जिए,
खेवैय्या अब कोई मेरा नदी के उस ओर नही,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

अधूरे सपनों संग मेरी, बंधी है जीवन की डोर,
अधूरे रंगों से है रंगी, मेरी आँचल की कोर,
कहानी ये अधुरी सी, क्युँ पूरा न कर पाया मेरा प्रिय,
बिखरे से मेरे जीवन का अब कोई ठौर नहीं!
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

सच जानकर भी, ये मन क्युँ जाता है उस ओर?
भरम के धागों से क्युँ बुनता मन की डोर?
पतंगा जल-जलकर क्युँ देता है अपनी प्राण प्रिय?
और कोई सुर मन को क्युँ करता विभोर नहीं?
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

खेवैय्या कोई अपना सा, अब नदी के उस ओर नही!

Saturday 15 October 2016

इक मोड़

अजब सी इक मोड़ पर रुकी है जिंदगानी,
न रास्तों का ठिकाना, न खत्म हो रही है कहानी।

लिए जा रहा किधर हमें ये मोड़ जिन्दगी के,
है घुप्प सा अंधेरा, लुट चुके हैं उजाले रौशनी के,
ओझल हुई है अब मंजिलें चाहतों की नजर से,
उलझी सी ये जिन्दगानी हालातों में जंजीर के।

अवरुद्ध हैं इस मोड़ पर हर रास्ते जिन्दगी के,
जैसे कतरे हों पर किसी ने हर ख्वाब और खुशी के,
ताले जड़ दिए हों किसी ने बुद्धि और विवेक पे,
नवीनता जिन्दगी की खो रही अंधेरी सी सुरंग में।

अजब सी है ये मोड़.....इस जिंदगी की रास्तों के.....

पर कहानी जिन्दगी की खत्म नहीं इस मोड़ पे,
बुनियाद हौसलों की रखनी है इक नई, इस मोड़ पे,
ऊँची उड़ान जिंदगी की भरनी हमें है विवेक से,
आयाम ऊंचाईयों की नई मिलेंगी हमें इसी मोड़ से।

यूँ ही मिल जाती नही सफलता सरल रास्तों पे,
शिखर चूमने के ये रास्ते, हैं गुजरते कई गहराईयों से,
चीरकर पत्थरों का सीना बहती है धार नदियों के,
इस मोड़ से मिलेगी, इक नई शुरुआत कहानियों के।

अजब सी इस मोड़ पे, नई मोड़ है जिन्दगानियों के.....

Friday 16 September 2016

अधलिखी

अधलिखी ही रह गई, वो कहानी इस जनम भी ....

सायों की तरह गुम हुए हैं शब्द सारे,
रिक्त हुए है शब्द कोष के फरफराते पन्ने भी,
भावप्रवणता खो गए हैं उन आत्मीय शब्दों के कही,
कहानी रह गई एक अधलिखी अनकही सी....

संग जीने की चाह मन में ही रही दबी,
चुनर प्यार का ओढ़ने को, है वो अब भी तरसती,
लिए जन्म कितने, बन न सका वो घरौंदा ही,
अधूरी चाह मन में लिए, वो मरेंगे इस जनम भी ....

जी रहे होकर विवश, वो शापित सा जीवन,
न जाने लेकर जन्म कितने, वो जिएंगे इस तरह ही,
क्या वादे अधूरे ही रहेंगे, अगले जनम भी?
अनकही सी वो कहानी, रह गई है अधलिखी सी....

विलख रहा हरपल यह सोचकर मन,
विधाता ने रची विधि की है यह विधान कैसी,
अधलिखी ही रही थी, वो उस जनम भी,
वो कहानी, अधलिखी ही रह गई इस जनम भी ....

Thursday 15 September 2016

अफसाना

लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

रुक गया था कुछ देर मैं, छाॅव देखकर कहीं,
छू गई मन को मेरे, कुछ हवा ऐसी चली,
सिहरन जगाती रही, अमलतास की वो कली,
बंद पलकें लिए, खोया रहा मैं यूॅ ही वही,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा तब वो अफसाना....

कुछ अधलिखा सा वो अफसाना,
दिल की गहराईयों से, उठ रहा बनकर धुआॅ सा,
लकीर सी खिंच गई है, जमीं से आसमां तक,
ख्वाबों संग यादों की धुंधली तस्वीर लेकर,
गाने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना.....

कह रहा मन मेरा बार-बार मुझसे यही,
उसी अमलतास के तले, आओ मिलें फिर वहीं,
पुकारती हैं तुझे अमलतास की कली कली,
रिक्त सी है जो कहानी, क्यूॅ रहे अनलिखी,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

Friday 1 April 2016

कहानियाँ

जीवन के विविध जज्बातों से जन्म लेती हैं कहानियाँ।

कहानियाँ लिखी नहीं जाती है यहाँ,
बन जाती है खुद ही ये कहानियाँ,
हम ढ़ूंढ़ते हैं बस अपने आप को इनमे यहाँ,
यही तो है तमाम जिंदगी की कहानियाँ।

किरदार ही तो हैं बस हम इन कहानियों के,
रंग अलग-अलग से हैं सब किरदारों के,
कोई तोड़ता तो कोई बनाता है घर किसी के,
नायक या खलनायक बनते हम ही जिन्दगी के।

भावनाओं के विविध रूप रंग में ये सजे,
संबंधों के कच्चे रेशमी डोर में उलझे,
पल मे हसाते तो पल मे आँसुओं मे डुबोते,
मिलन और जुदाई तो बस पड़ाव कहानियों के।

आँखों मे आँसू किसी के यूँ ही नहीं छलकते,
जज्बात दिलों के कुछ कहते हैं रो रो के,
कहानियाँ कह जाती है ये व्यथा इस मन के,
खुशी और गम में ही छुपे कहानियाँ जिन्दगी के।

कहानियाँ लिखी नहीं जाती बनती है खुद ही कहानियाँ।

Thursday 31 March 2016

एक मधुर कहानी का अन्त

क्या मधुर कहानी का अन्त ऐसा हीे होता है जग में?

नजदीकियाँ हद से भी ज्यादा दोनों में,
बेपनाह विश्वास पलता धा उनके हृदय में,
सीमा मर्यादाओं की लांघी थी दोनों नें,
टीस विरह की रह रह कर उठते थे मन में,
फिर भी बिछड़े-बिछड़े से थे दोनों ही जीवन में!

क्या ऐसी कहानी का अन्त ऐसा हीे होना है जग में?

आतुरता मिलने की पलती दोनो के मन में,
सपनों की नगरी ही पलती थी मन में,
विवश ज्वाला सी उठती थी रह रह कर तन में,
सुख मिलन के क्षणिक दोनों ही के जीवन में,
विरह की अगन धू-धू कर जलती फिर भी मन में!

क्या प्रेम कहानी का अन्त ऐसा हीे होना है जग में?

क्युँ मिल नहीं पाते दो प्रेमी हृदय इस जग में?
रंग प्रेम के क्यों सूखे हैं उनके जीवन में?
विरानियाँ मन के क्या लाएंगे कलरव खुशियों के?
सूखे पेड़ क्या फल पाएंगे जग के आँगन में?
गर्म हवाएँ लू सी चलती अब उनके मृदुल सीने में!

क्या प्रेमी हृदय ऐसे ही जलते हैं जग के प्रांगण में?

विष के घूँट पी रहे अब दोनो ही जीवन के,
चुभन शूल सी सहते पल पल विरह के,
कलकल सरिता से नीर बहते उनकी नैनों से,
कंपन भूचाल सी रह रह कर उठते हृदय में,
पलकें पथराईं सी आँचल भीगे भीगे अब जीवन में!

क्या मधुर कहानी का अन्त ऐसा हीे होता है जीवन में?

Friday 5 February 2016

गुड्डे-गुड़िया की कहानी

सुनो सुनाऊँ तुमको एक कहानी,
गुड्डे-गुड़िया की एक जोड़ी थी सुन्दर सी,
मगन थे दोनों अपनी ही दुनियाँ मे,
संसार बसाई थी एक छोटी सी उसने,
किस्मत पे नाज था उन दोनों को,
मजबूत तिनकों से घर बनाई थी दोनों ने।

नन्हे नन्हे तीन फूल उग आए थे आँगन में,
बहार छा गई फिर उनके जीवन में,
कभी फूलों को सहलाते कभी पानी देते,
सुख देकर उनको दुःख उनका हर लेते,
देखते फिर इक दूजे को नाज से,
असीम सुख का अनुभव फिर दोनो कर लेते।

सुख के कांटे चूभे शूल से यम को,
सामना हुआ उनका क्रूर काल वैरागी से,
एक फूल खिलने से पहले ही मुरझाया,
अपनी क्रूर मनमानी काल ने दिखलाया,
फिर क्रूर ने उस सुन्दर गुड़िया को लीला,
टूटी जोड़ी, टूटे सपने, गुड्डा जीते जी मर गया।

जीवन तो जीना था अब भी उस गुड्डे को,
माला यादों की रखता बस हाथों मे अब वो,
चुपचाप ताकता बाग के शेष फूलों को,
सूख चुकी थी अब छोटी सी बगिया वो,
क्लांत मलिन आँखो से टुकटुक तकता वो
विधि का क्रूर विधान देखा अपनी आँखों से वो।

(दिनांक 01.02.2016 को मेरे प्रिय विनय भैया से ईश्वर ने भाभी को छीन लिया। बचपन से मैने उस खूबसूरत जोड़ी को निहारा है और छाँव महसूस भी की। उनके विछोह से आज मन भर आया है, एक संसार आज आँखों के सामने उजाड़ हुआ बिखरा पड़ा है। हे ईश्ववर, यह लीला क्यों? यह पूजा अधूरी क्यों? यह संगीत अधूरा क्यों?)

Tuesday 26 January 2016

क्षणिक पतंगे की जलती कहानी

प्रीत की तेरी,
कहानी क्षणिक पतंगे सी,
अमर प्रीत,
है तेरी जलते दीपक सी,
था लघु,
जीवन तेरी प्रीत का,
पर उम्र सारी,
तूने याद में बीता दी,
कह सकुंगा,
न मै ये जलती कहानी।
मेरे ठंढ़े हृहय में,
अधूरी वो जलती कहानी।

मैं भूलना चाहता,
अब वो जलती कहानी,
जिऊ कैसे,
जब आग उर में होे फानी,
क्या तुम कह पाओगी,
फिर कोई नई कहानी,
क्या तेरे हृदय,
सजेगा आज ठंढा पानी,
क्षणिक पतंगे की,
आग तुझको है फिर जलानी,
मेरे ठंढ़े हृहय में,
तब पू्री होगी वो जलती कहानी।