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Monday 6 December 2021

लगाव

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

खोल दो, कल की सारी खिड़कियां,
झांक तो लूं, मैं जरा,
क्या धरे भेष वो, कौन सा परिवेश वो,
है किधर, जाने परदेश वो,
लिखे, क्या कहानी, 
बेजुबानी,
दे न जाए, कोई अनचाही निशानी,
परिवेश मेरा!

अनायास, मिल न जाए, मोड़ कोई,
संभल जाऊं, मैं जरा,
ये अन्तहीन, सर्प सरीखी, राहों के घेरे,
विस्तृत, गुमसुम से ये फेरे,
कल, छीन ले सगा,
रहूं, मैं ठगा,
हठात्, दे न जाए, कल इक दगा,
ये वक्त मेरा!

मुझे लगाव, हर एक पल से आज,
जी लूं आज, मैं जरा,
नींव, कल की, आज ही एक डाल दूं,
मन के, भरास निकाल लूं,
क्यूं रहे, ये मन डरा,
यूं भरा-भरा,
हर वक्त ये पल, ये क्षिण, ये धरा,
बस रहे मेरा!

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 25 May 2019

अधूरे ख्वाब

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

संदली राह, मखमली चाह, मदभरी निगाह है,
अनबुझ सी, वही इक प्यास है,
अधूरा सा है, वही ख्वाब है...

बुन लाता ख्वाब सारे, चुन लाता मैं वही तारे,
बस, स्याह रातों सा हिजाब है,
बवंडर सा है, इक सैलाब है...

यूँ ही रहे गर्दिशों में, बेरहम वक्त के रंजिशो में,
उभरते से रहे, वो ही तस्वीरों में,
एक अक्श है, वही निगाह है....

जल जाते हैं वो, जुगनुओं सा चिराग बनकर,
उभर आते हैं, कोई याद बन कर,
एक जख्म है, वही रिसाव है...

वक्त के इस मझधार में, पतवार बस एक था,
उफनती धार में, नाव बस एक था,
वो ही भँवर है, वही प्रवाह है....

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 17 December 2015

लगाव.....!

आज मेरी जिन्दगी नें कहा,
"चंद फासला जरूर रखिए हर रिश्ते के दरमियान"
क्योंकि
नहीं भूलती दो चीज़ें चाहे जितना भुलाओ !
एक "घाव"और दूसरा "लगाव"...!

मुझसे रहा न गया!
मैंने कहा,

अब तो फासले ही हैं,
घाव जो लगे हैं लगाव को
रिश्ते भी दम तोड़ने लगे है,,,,,,,

लगाव अगर गहरा हो तो दिखनी भी चाहिए,
महसूस भी होनी चाहिए इसकी गर्माहट,,
वर्ना लगाव तो हमें हर चीज से है,
जो हमारी जिन्दा होने या न होने की शर्त नही।