Showing posts with label झूठ. Show all posts
Showing posts with label झूठ. Show all posts

Saturday 25 May 2019

अधूरे ख्वाब

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

संदली राह, मखमली चाह, मदभरी निगाह है,
अनबुझ सी, वही इक प्यास है,
अधूरा सा है, वही ख्वाब है...

बुन लाता ख्वाब सारे, चुन लाता मैं वही तारे,
बस, स्याह रातों सा हिजाब है,
बवंडर सा है, इक सैलाब है...

यूँ ही रहे गर्दिशों में, बेरहम वक्त के रंजिशो में,
उभरते से रहे, वो ही तस्वीरों में,
एक अक्श है, वही निगाह है....

जल जाते हैं वो, जुगनुओं सा चिराग बनकर,
उभर आते हैं, कोई याद बन कर,
एक जख्म है, वही रिसाव है...

वक्त के इस मझधार में, पतवार बस एक था,
उफनती धार में, नाव बस एक था,
वो ही भँवर है, वही प्रवाह है....

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 17 January 2019

चल झूठी

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

सपन! सलोना सा है वो मेरा,
उन सपनों में, रमता है ये मन मेरा,
आओ देखो, तुम भी ये सपना,
झूठ या सच, मुझको फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

सागर तट सी, उनकी पलकें,
मदिरा हरपल, नैनों से हों छलके,
पास बुलाए, वो चल-चल के,
ना होश उड़ा दे, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

भूल-भुलैय्या, हैं उनकी आँखें,
जाना-पहचाना, वो पथ बिसरा दे,
वो स्वागत में, दो बाहें फैला दे,
मोहित ना कर दे, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

रूप सुनहरा, जैसे हो गहना,
बरसा हो सावन, जैसे इस अंगना,
नित चाहे मन, उनमें ही खोना,
सुंदर ना हो सपना, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

Tuesday 26 July 2016

प्यारा झूठ

झूठा सा सच वो, ले चला मुझको यादों के वन में,
सच से भी प्यारा लगता है, वो झूठ मुझे इस जीवन में....

एक झूठ, जो सच से भी है प्यारा मुझको,
झूठ ही जब उसने कहा, तू बस प्यारा है मुझको,
खिले थे कितने ही कँवल, सपने दिखते थे मुझको,
झूठा सा सच वो, बाँध रहा अब भी मुझको।

क्यों लगता कोई झूठ, कभी सच से भी प्यारा,
कौन यहाँ कब बन जाता, पलभर में जीने का सहारा,
मिट्टी का है यह तन, पर मन तो ठहरा इक बेचारा,
प्यार ढ़ूंढ़ता उस झूठ में, फिरता दर-दर मारा।

तिनका भर ही, कुछ सच तो था ही उस झूठ में,
पल भर को ही सही, दिल धड़का तो था सच-मुच में,
झूठा ही सही, दिखी तो थी चमक तब उन नयनों में ,
भूलूँ भी कैसे, एक सहारा वो ही तो जीवन में।

वो झूठ, बस यूँ ही नही प्यारा मुझको जीवन में,
कुछ पल को भूले थे वो, खुद को इन बाहों के झूलों में,
अंगड़ाई ली थी उसने भी, तब इन साँसों की गर्मी में,
झूठ बना वो प्यारा, खेला जब संग वो सपनों में।

वो झूठ, दे गया कितने ही लम्हों की बेवश यादें,
पलकों में सपने ही सपनें, अविरल आँसू की सौगातें,
तन्मयता से गढ़ी झूठ, मन मे समाई वो प्यारी बातें,
हाथ गहे मैं सोचता, उसने की थी कितनी न्यारी बातें।

झूठा सा सच वो, ले चला मुझको यादों के वन में,
सच से भी प्यारा लगता है, वो झूठ मुझे इस जीवन में....

Saturday 18 June 2016

धीरज

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुझमें इतना धीरज.........
कि यूँ ही तुम चलते रहो उम्र भर साथ,
बिन आशा, बिन आकांक्षा, बिन अभिलाषा,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
तुम सब झूठा हो जाने दो कहा-सुना,
कहना-सुनना क्या बस देखो इक सपना,
छल जाने दो उर को बस, रहो निराश उदास,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
अब उठे भी कहाँ से प्यार की बात,
असमंजस हों कदम-कदम पर उर में जब,
इस मन के एकाकी तारे को दो बस यूँ उछाल,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुममें इतना धीरज.........

Sunday 8 May 2016

मुद्दतों गुजरे अफसाने

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

छलता ही रहा हर पल मन उस छलावे में,
भटकता ही रहा हर क्षण बदन उस बहकावे में,
टूटा सा इक दर्पण निकला वो अपना सा लगता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

घुँघरू सा बजता था वो दिल के तहखानों में,
पहचाना सा इक शक्ल लगता था वो अन्जानों में,
टूटा है अब मेरा घुँघरू वो, इस दिल में बजता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

जाने कितनी बार छला है ये मन इस दुनिया में,
ये पागल दिल भूल जाता है खुद भी को मृगतृष्णा में,
टूटा है अब जाल वो छल का उलझा था इस मन में जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

Thursday 31 March 2016

क्या लोग कहेंगे

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

झूठी गिरह मन की बंधन के,
बेवजह संकोच लिए फिरता हूँ मन में,
अनिर्णय की स्थिति है, असमंजस में बैठा हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

घुट चुकी है दम प्रतिभाओं की,
खुद को पूर्णतः कहाँ खोल सका हूँ,
पूर्णविराम लगी है, कपाल बंद किए सोया हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

सपने असंख्य पल रहे इस मन में,
शायद कवि महान बन जाता जीवन में,
शब्द घुमड़ रहे है पर, लेखनी बंद किए बैठा हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

ग्यान का कोष मानस में,
अभिव्यक्ति मूक किए बस सुनता हूँ,
विवेचना की शक्ति है, पर दंभ लिए फिरता हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

चाहत खुशियों की पल के जीवन में,
खुशियों की लम्हों में कुछ कहने से डरता हूँ,
जिन्दा हूँ लेकिन, जीवन की लम्हों को यूँ खोता हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?