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Saturday, 12 February 2022

आवाज

कल, कहीं, किस्सों में मिलूंगा,
किधर, न जाने, कितने हिस्सों में बटूंगा,
आज, पुरकशिश, इक आवाज़ हूँ,
सुन लो, धड़कता साज हूँ!

भटक कर रह गई, कहीं, कितनी आवाजें,
सुनता कौन, उनकी गुजारिशें,
बेअसर, लौट आईं कभी, उभरती गूंज बनकर,
कभी, दब कर रह गईं, इक आह बनकर,
पिरोए, एहसास कितने, आज हूँ,
सुन लो, तड़पता साज हूँ!

गूंज वो ही, रखे हैं, चंद शब्दों में पिरोकर,
उभर आते, गीतों में वो अक्सर,
वो ही, बन चले हैं, गुजरते वक्त के हमसफर,
सांझ जो, ढ़ल न पाए, इक रात बनकर,
उस, ठहरे सांझ का अल्फ़ाज़ हूँ,
सुन लो, बिखरता साज हूँ!

जाओगे जिधर, बुलाएंगी, वो ही सदाएं,
अक्सर, राह वो ही, टोक जाएं,
कस्तियां, मुड़ ही जाएंगी, किनारा हो जिधर, 
ये आवाज, कभी कर ही जाएंगी असर,
लिखूं शिलाओं पर, संगतराश हूँ,
सुन लो, बहकता साज हूँ!

इस धार में, बह, जाऊं किधर,
समय के मझधार में, रह, जाऊं किधर,
अनसुना अब तलक, वो राज हूँ,
सुन लो, धड़कता साज हूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 6 December 2021

लगाव

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

खोल दो, कल की सारी खिड़कियां,
झांक तो लूं, मैं जरा,
क्या धरे भेष वो, कौन सा परिवेश वो,
है किधर, जाने परदेश वो,
लिखे, क्या कहानी, 
बेजुबानी,
दे न जाए, कोई अनचाही निशानी,
परिवेश मेरा!

अनायास, मिल न जाए, मोड़ कोई,
संभल जाऊं, मैं जरा,
ये अन्तहीन, सर्प सरीखी, राहों के घेरे,
विस्तृत, गुमसुम से ये फेरे,
कल, छीन ले सगा,
रहूं, मैं ठगा,
हठात्, दे न जाए, कल इक दगा,
ये वक्त मेरा!

मुझे लगाव, हर एक पल से आज,
जी लूं आज, मैं जरा,
नींव, कल की, आज ही एक डाल दूं,
मन के, भरास निकाल लूं,
क्यूं रहे, ये मन डरा,
यूं भरा-भरा,
हर वक्त ये पल, ये क्षिण, ये धरा,
बस रहे मेरा!

धुंधला सा, वो कल का सवेरा!
मुकम्मल है, या है अधूरा!
कल्पनाओं का बसेरा, वो एक डेरा।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 June 2020

फसाने

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

गुम है हकीकत, गुमनाम हैं गुजरे हुए कल,
कौन जाने, जीवंत कितने थे वो पल,
कोई कहानी सी, बन चुकी वो,
यादों की निशानी सी, बन चुकी वो,
कोरी हकीकत वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

छूट ही जाते हैं, कहीं उन महफ़िलों में हम,
जैसे रूठ जाते हैं, वो गुजरे हुए क्षण,
लौट कर फिर, न आते हैं वो,
छू कर तन्हाई में, गुजर जाते हैं वो,
बीते वो फसाने, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

ठहरे हैं आज भी हम, उन्हीं अमराइयों में,
एकाकी से पड़े हैं, इन तन्हाईयों में,
बन कर गूंजती है, आवाज वो
मूंद कर नैन, सुनता हूँ आवाज वो,
ख़ामोशियाँ वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 19 February 2016

प्रश्न - क्या लिखूँ?

सोचता हूँ कि आज मैं क्या लिखूँ?

रास्तों के धूल लिखूँ या पत्थरों के फूल लिखूँ,
जिन्दगी के प्रश्न लिखूँ या जिन्दगी को जवाब लिखूँ,
नग्मा ए नज्म लिखूँ या कुरान ए आयत लिखूँ,
तुमसे शिकवा लिखूँ या तुम्हारी शिकायत लिखूँ,
लिखने को कुछ नया आज मिल रहा नही!

सोचता हूँ कि आज मैं क्या लिखूँ?

रात के ख्वाब लिखूँ या दिन के गुलाब लिखूँ,
पत्तियों की सरसराहट लिखूँ या आपकी घबराहट लिखूँ,
चांदनी रात लिखूँ या स्याह अंधेरी रात लिखूँ,
अपने जज्बात लिखूँ या आपके ख्वाब लिखूँ,
लिखने को कुछ नया आज मिल रहा नही!

सोचता हूँ कि आज क्या लिखूँ?

बाग के फूल लिखूँ या गूलाब के कांटें लिखूँ,
पंछियों की चहचहाहट लिखूँ या पाँव की आहट लिखूँ,
सूखते पत्तों पे लिखूँ या खिलते गुलाब पे लिखूँ,
आपकी याद लिखूँ या आपका भूलना लिखूँ,
लिखने को कुछ नया आज मिल रहा नही!

सोचता हूँ कि आज क्या लिखूँ?