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Friday 29 January 2021

अर्धसत्य सा

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

सत्य, क्या महज इक नजरिया?
या समक्ष होकर, कहीं कुछ है विलुप्त!
फिर, जो समक्ष है, उसका क्या?
जो प्रभाव डाले, उसका क्या?

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

पहाड़ों पर, वो तलाशते हैं क्या?
वो अनवरत, पत्थरों को सींचते हैं क्यूँ?
सजदे में क्यूँ, झुक जाते हैं सर?
क्यूँ दुआ कर जाती है असर?

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

जो समक्ष है, क्या वही है सत्य?
या इक दूसरा भी रुख है, नजर के परे!
जो नजर ना आए, उसका क्या?
जो, महसूस हो, उसका क्या?

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

उलझा सा, ये द्वन्द या जिज्ञासा!
क्यूँ लगे समान, दुविधा या समाधान?
क्यूँ, ये दो पहलू, संयुक्त सर्वदा?
असत्य के मध्य, सत्य छिपा!

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

मानो, तो ईश्वर, ना, तो पत्थर!
विकल्प दोनों, पलते मन के अन्दर!
इक कल्पना, या इक आकार!
क्या ये सत्य, बिना आधार!

सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 9 January 2021

विचलन

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

यूँ लगता है, जैसे!
शायद, अछूता ही था, 
अब तक मैं!
जबकि, कितनी बार,
यूँ, छूकर गुजरी थी मुझको,
ख्यालों की आहट!
बदलते मौसम की मर्माहट,
ये ठंढ़क, ये गर्माहट,
बारिश की बूँदें!

यूँ, भींगा था तन!
पर, रीता ना अन्तर्मन!
अछूता सा,
कैसा है, ये विचलन!
कैसी है, ये करुण पुकार!
किसकी है आहट?
यूँ अन्तर्मन क्यूँ है मर्माहत?
क्यूँ देती नही राहत!
बारिश की बूँदें!

क्यूँ रहता, बेमानी!
भीगी, पलकों का पानी,
प्यासा सा!
रेतीला, इक मरुदेश!
और, विहँसता नागफनी!
पलता इक द्वन्द!
पल-पल, सुलगती गर्माहट,
इक चिल-चिलाहट,
विचलन, मन की घबराहट,
क्या, बुझाएंगी प्यास?
बारिश की बूँदें!

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 27 March 2020

मेरे नज्म

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

हो कैद, पल में, 
कभी, पल को लिखे!
यूँ, अचानक!
कभी, कुछ लिखे, कभी, कुछ भी लिखे!
विचरता, है स्वच्छंद,
अन्तर्द्वन्द, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

पलों के, संकुचन,
यूँ ही, गुजरते हुए क्षण!
रोके, ये मन,
थाम ले ये बाहें, कहे, चल कहीं बैठ संग!
गतिशील, हर क्षण,
इन्हीं द्वन्दों में, घिर जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

बहती सी, ये धारा,
न पतवार, है ना किनारा!
रोके, ना रुके,
उफनते ये लहर, जलजलों सा है नजारा!
तैरते, ये सिलसिले,
कहीं खुद को, डुबो जाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!

ये सुनता ही नहीं,
है मेरे, दिल की कभी!
ये, जिद्दी बड़ा, 
करता है बक-बक, जी में आए कुछ भी!
पागल सा ये मन,
ये बातें, ना समझ पाइएगा!

न नज्मों पे, मेरे जाइएगा!
ये बातें हैं, मन की, उलझ जाइएगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 25 May 2019

अधूरे ख्वाब

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

संदली राह, मखमली चाह, मदभरी निगाह है,
अनबुझ सी, वही इक प्यास है,
अधूरा सा है, वही ख्वाब है...

बुन लाता ख्वाब सारे, चुन लाता मैं वही तारे,
बस, स्याह रातों सा हिजाब है,
बवंडर सा है, इक सैलाब है...

यूँ ही रहे गर्दिशों में, बेरहम वक्त के रंजिशो में,
उभरते से रहे, वो ही तस्वीरों में,
एक अक्श है, वही निगाह है....

जल जाते हैं वो, जुगनुओं सा चिराग बनकर,
उभर आते हैं, कोई याद बन कर,
एक जख्म है, वही रिसाव है...

वक्त के इस मझधार में, पतवार बस एक था,
उफनती धार में, नाव बस एक था,
वो ही भँवर है, वही प्रवाह है....

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 22 February 2016

निर्वाण की कठिन यात्रा

निर्वाण की अकल्पित कठिन यात्रा,
पल पल तय कर रहा इन्सान,
राह कठिनतम इस जीवन की,
लक्ष्र्य कर्म के यहाँ महान,
निर्वाण की राह चलता जा रहा इन्सान।

पल भर रूक सोचता मन में,
निर्वाण मिलेगा पर कैसे जीवन में,
लक्ष्य क्या साधने होंगे राहों में,
कितने विष पड़ेंगे जीवन के पीने,
निर्वाण पाएगा क्या तन इस जीवन में?

तन और मन में द्वंद चल रहा निरंतर,
तन कहता तू राह मोह की पकड़,
मन कहता तू जीवन की माया के संग चल,
विवेक पिस रहा मध्य इस अन्तर्द्वन्द के,
इच्छाएँ मन और तन की भारी निर्वाण पर।

नियंत्रण इन इच्छाओं पर करता,
राह निर्वाण की तय कर रहा इन्सान,
जीवन की इस महा-कर्मक्षेत्र में,
लघु इच्छाओं को तज, साधे लक्ष्य को,
यह कठिन यात्रा पल पल कर रहा इन्सान।