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Thursday, 9 April 2020

दिशाहीन सफर

कर चुके बहुत, दिशाहीन सा ये सफर!

कम थे, बहुतेरे, सफर के सवेरे,
दिन के उजालों में, गहन मन के अंधेरे,
ठहरे समुन्दरों में, लहरों के थपेरे,
मुस्कुराहटों में, समाया डर,
चह-चहाहटों के, बेसुरे से होते स्वर,
खुशी की आहटों से, हैं बेखबर,
न थी सूनी, इतनी ये सफर!

चल चुके बहुत, अन्तहीन सा ये सफर!

होती रही, शून्य सी, चेतनाएँ,
हैं प्रभावी, काम, मोह, मद, लालसाएँ,
हैं, फिजाओं में घुली, वासनाएँ,
प्रगति के, ये कैसे हैं चरण?
छलते है जहाँ, मनुष्य के आचरण,
हैं राहें कर्म की, बातों से इतर,
दिशाहीन, कैसी ये सफर!

कर चुके बहुत, दिशाहीन सा ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 28 March 2016

प्रेमी हृदय की मौत

धड़कता था,
वो प्रेमी हृदय,
कभी इक सादगी पर,
उस सादगी के पीछे,
छुपा मगर,
इक चेहरा अलग,
आकण्ठ डूबी हुई,
वासना में उनकी नियत,
टूटकर बिखरा पड़ा,
अब यहीं वो कोमल हृदय।

मोल मन की,
भाव का,
कुछ भी नही उनके लिए,
दंश दिलों की,
सरहदों पर,
वो सदा देते रहे,
हृदय के,
आत्मीय संबंध,
खिलौने खेल के हुए,
वासना के आगे उनकी,
सर प्रीत के हैं झुके हुए।

घुट रहा दम,
उस हृदय का,
जीते जी वो मर रहा,
वो मरे या जले,
उसकी किसी को फिक्र क्या,
अन्त ऐसा ही हुआ,
जब प्रीत किसी हृदय ने किया,
वासना के सम्मुख,
प्रीत सदा नतमस्तक हुआ।