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Thursday, 10 February 2022

लता

शाख से, बिछड़ी इक लता!
कुछ तो, डालियों ने भी, की होगी खता!

यूं तो, झूलती थी वो, पवन की बांहों में,
विहँसती थी, टोककर,
उड़ते पंछियों को, उन राहों में,
मचल उठती थी, अजनबी मुसाफिरों संग,
शायद, सोचकर कि,
गुजर जाएंगे, चैन से तन्हा पल,
कुछ तो, रहबरों ने भी, की होगी खता,
टूट कर बिखरी, इक लता!

यूं तो अक्सर, लौटकर आती है बहारें,
बरस जाती है, फुहारें,
पर, खिल न सकेगी वो लता,
इस दफा, ये बागवां, पूछेंगी उनका पता,
चुप सी, रहेगी, घटा,
शायद, पतझड़ सा हो बसन्त,
कुछ तो, इन गुलों ने, की होगी खता,
टूट कर बिखरी, इक लता!

यूं तो, सितार कोई, फिर छेड़ जाएगा,
नज़्म, न होंगे बज़्म में,
न होगी, फिज़ाओं में तरंगिनि,
हर दफा, ये हवाएं, पूछेंगी उनका पता,
चुप सी, होगी, सदा,
शायद, ख़ामोश सी होगी लहर,
कुछ तो, सरगमों ने, की होगी खता,
टूट कर बिखरी, इक लता!

शाख से, बिछड़ी इक लता!
कुछ तो, डालियों ने भी, की होगी खता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

:::::श्रद्धांजलि लता मंगेशकर दी .......

Tuesday, 4 May 2021

श्रद्धासुमन


आदरणीया डा. वर्षा जी के निधन  (निधन तिथि 03.05.2021), की खबर पाकर स्तब्ध हूँ। श्रद्धांजलि के रूप में पेश है, उनकी ही लिखी कुछ पंक्तियों से प्रभावित, एक कविता, मेरी ओर से एक श्रद्धासुमन-

जब भी खिल आएंगी, कहकशाँ,
वो याद आएंगे, बारहां!

बारिशों से, नज्म उनके, बरस पड़ेंगे,
दरख्तों के ये जंगल, उनकी ही गजल कहेंगे,
टपकती बूँदें, घुँघरुओं सी बज उठेंगी,
सुनाएंगी, कुछ नज्म उनके,
उनकी ही कहानियाँ!

वो याद आएंगे, बारहां!

इक नदी, बहती थी अंदर ही अंदर,
या छुपा कर उसने भी रखा था, इक समंदर,
वो ही प्रवाह, बन उठी थी लहर-लहर,
भिगोएंगी, रह-रहकर सदा,
उनकी ही रवानियाँ!

वो याद आएंगे, बारहां!

कहकशाँ, पूछेंगी चांदनी का पता,
जब कभी भूल जाएगी, वो अंधेरों में रास्ता,
उनकी चाँदनी मैं भी, रख लेता चुरा,
ढूढ़ेंगी, अब मेरी ये निगाहें,
उनकी ही निशांनियाँ!

जब भी खिल आएंगी, कहकशाँ,
वो याद आएंगे, बारहां!
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कई बार उनकी रचनाओं और मेरी ब्लॉग पर उनकी प्रतिकियाओं ने मुझे प्रेरित किया है।

उद्धृत है चर्चामंच पर उनके लिए आदरणीया कामिनी जी द्वारा लिखी गई एक प्रतिक्रिया का अंश जो उनके बारे में सबकुछ कह जाती है: - असाधारण लेखिका, कवयित्री, शायरा एवं कला-प्रेरिका वर्षा जी नहीं रहीं?  क्या यह विदुषी अब केवल स्मृति-शेष है? 

उनकी ब्लाॅग के लिंक्स-
https://varshasingh1.blogspot.com/
https://ghazalyatra.blogspot.com/
https://vichar-varsha.blogspot.com/

पेश है, स्व. वर्षा  जी की लिखी, कुछ पंक्तियाँ:
एक नदी बाहर बहती है, एक नदी है भीतर
बाहर दुनिया पल दो पल की, एक सदी है भीतर 

साथ गया कब कौन किसी के, रिश्तों की माया है 
बाहर आंखें पानी-पानी, आग दबी है भीतर 

एक लय है ख़ुशी, गुनगुनाओ ज़रा 
मुझको मुझसे कभी तो चुराओ ज़रा 

कौन जाने कहां सांस थम कर कहे -
"अलविदा !" दोस्तो, मुस्कुराओ जरा..
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उनके बारे में ज्यादा व्यक्तिगत जानकारी तो नहीं है, पर रचनाओं और उनकी लेखन कलाओं के माध्यम से उन्होंने एक अमिट छाप छोड़ी है मुझ पर। उनकी सशक्त रचनाएँ ब्लॉग जगत में एक मील के पत्थर की तरह अंकित रहेंगी।
उनकी असामयिक मृत्यु ब्लॉग जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।
ईश्वर से उनकी दिवंगत आत्मा हेतु शांति की प्रार्थना करता हूँ।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 8 January 2021

श्रद्धांजलि

एक अभिन्न मित्र की असामयिक अंतिम यात्रा पर, अनुभूति के श्रद्धासुमन.....इक श्रद्धांजलि

अकेले ही, मुड़ गए तुम, अनन्त की ओर,
पीछे, सारे सगे-संबंधी, छोड़!

एक कदम, बिन साथी, तुम कब चलते थे,
तुम तो, तन्हाई से भी, डरते थे,
पर अबकी, चल पड़े तुम,
तन्हा, बिन बोले,
उस अंजाने, अंधेरे की ओर,
सब, संगी-साथी छोड़! 

अकस्मात्, तुम, चुन बैठे, इक अनन्त पथ, 
ना, सारथी कोई, ना कोई, रथ,
अनिश्चित सा, वो गन्तव्य!
खाई, या पर्वत!
या, वो इक अंतहीन सा मोड़,
या, सघन वन घनघोर!

माना कि जरा भारी था, ये वक्त, ये संघर्ष!
पर, स्वीकारना था, इसे सहर्ष,
यूँ खत्म, नहीं होती बातें,
यूँ फेरकर आँखें,
चल पड़े हो, सच से मुँह मोड़,
बेफिक्र हो, उस ओर!

जाते-जाते, संग उन यादों को भी ले जाते,
सारी, कल्पनाओं को ले जाते,
ढूंढेगीं, जो अब तुझको,
यूँ, रह-रह कर,
गए ही क्यों, रख कर इस ओर!
विस्मृतियों के, ये डोर!

अकेले ही, मुड़ गए तुम, अनन्त की ओर,
पीछे, सारे सगे-संबंधी, छोड़!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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प्रिय मित्र स्व.कौशल  ....अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि 
जहाँ भी हो, खुश रहो दोस्त,
स्मृति के सुमधुर क्षण में,  तुम हमेशा संग रहोगे।

Monday, 22 June 2020

बिन पिता

बिन पिता!
जल ‌रही जैसे,
जीते जी, जीवन की भट्ठी में!
इस जीवन की,
इक चिता!

आँखों में मेरी, जीवन्त है चेहरा तुम्हारा,
है ख्यालों पर मेरी, तेरा ही पहरा,
पर, दर्शन वो अन्तिम तेरा,
मेरे ही, भाग्य न आया!
अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

यूँ तो, संग रहे तुम, करुणामय यादों में,
गूंज तुम्हारी, ‌‌है अब भी कानों में,
पर, भीगी सी पलकों में!
तुझको, ना भर पाया!
अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

तुम रहे हो बनकर, स्वप्न कोई अनदेखा,
जैसे टूटकर, फिर बनती हो रेखा,
पर, वो ही मूरत अनोखा!
रहा, आँखों में समाया!
अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

थी विस्मयकारी, तेरी सारगर्भित बातें,
शेष है जीवन की, वो ही सौगातें,
और, लम्बी होती ये रातें!
इन, रातों नें भरमाया!
अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

देकर आधार, अनन्त सिधार गए तुम,
देकर अनुभव का, सार गए तुम,
पर, किस पार गए तुम?
फिर, ढूंढ न पाया!
अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

भारी है जीवन पर, इक वो ही व्यथा!
भूल पाऊँ कैसे, तुमको सर्वथा?
कहीं, खत्म हुई जो कथा!
वो, फिर याद आया!
अन्त समय, पापा, मैं तुझको देख न पाया!

बिन पिता!
जल ‌रही जैसे,
जीते जी, जीवन की भट्ठी में!
इस जीवन की,
इक चिता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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पितृ दिवस (Fathers Day) 21 जून पर  पापा को विशेष श्रद्धांजलि, जो 48 वर्ष की अल्पायु में (सन 1990 में) ही हमें छोड़ अनन्त सिधार गए...

उस पिता को, अश्रुपूरित श्रद्धांजलि!