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Tuesday 19 January 2016

मुझे सींचकर तुम क्या पाओगे?

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ संवेदनाओं का,
रख दी गई है जो समेट उस कोने में,
व्यर्थ गई भावनाएँ मन को समझाने में।
बन चुका बस एक फसाना बेगाने में।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हुँ अरमानों का,
साँस छूट चुके है जिनके घुट-घुट के,
छुपा दी गई जिन्हे पीछे उस झुरमुट के,
कुछ मोल नहीं इन निश्छल जज्बातों के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ कल्पनाओं का,
असंख्य तार टूट चुके हैं कल्पनाओं के,
गुजरेगी अब कैसे कंपन वेदनाओं के,
मृत हो चुके हैं संभावना संवेदनाओं के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

Friday 15 January 2016

कौन रहा पुकार?

आह! है कौन वो जो छेड़़ जाती मन के तार?

कानों मे गूंजती एक पुकार,
रह रहकर सुनाई देती वही पुकार,
सम्बोधन नहीं होता किसी का उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास
कोई पुकार रहा मुझे बार-बार!

आह! यह किसकी वेदना कर रही चित्कार?

हल्की सी भीनी सुगन्ध चली कहाँ से,
बढ़ती जाती सुगंध हवाओं के साथ,
पहचानी सी खुशबु पर आमंत्रण नहीं उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास,
कोई बुला रहा मुझको उधर से बार-बार!

आह! यह किसकी खुशबु मुृझको रही पुकार?

Tuesday 5 January 2016

मौन ही मुक्ति

जीवन की तृष्णाओं से,
मुक्त न कोई हो पाया,
चक्रव्युह इस तृष्णा का,
जग में कोई तोड़ न पाया,
अवसान वेला बची न तृष्णा,
चिरनिद्रा आगोश मे लेकर,
मौन ही इनसे मुक्त करेगा!

अकेन्द्रित चेतन का द्वार,
जीते जी न खुल सकेगा,
जीवन गांठ खुला न तुझसे,
जीकर भी तू क्या करेगा,
चिर निद्रा की आएगी वेला,
उस दिन तू वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!

शब्दों से परे नाद तू बोलता,
संवेदना से परे हैं तेरे संवाद,
अहंकार, ईर्ष्या घेरे है तुृझको,
ईन पर तू कब विजय करेगा,
जीते जी तू क्या मानव बनेगा,
इक दिन तू भी वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!

Friday 18 December 2015

मन पाए न विश्राम क्यूँ?


मन पाए न विश्राम क्युँ?
चातक बन चाहे उड़ जाऊँ,
खुले गगन की सैर करूँ,
आसमान को बाहों मे भर लाऊं

मन की चाह अति निराली,
गति इसकी लांघे व्योम,
बात कहे वो अजब अनोेखी,
पर विवेक करता इसके विलोम,

मन की बात सुनुं तो,
जग कहता, अपने मन की करता है
दूसरों की तो सुनता ही नही,
बावरा है यूं ही डग भरता रहता है

इन्सानों के मन आपस मे कब मिलते है,
यहां तो मन पे पहरे हैं
मन की निराली बातें रह जाती,
मन मे ही व्यथित, कुचलित,
मन की तो भावनाएं ही जग में
कही जाती "कुत्सित"

मन तू कर विश्राम जरा,
अपनी पीड़ा को दे आराम जरा,
जग की वर्जनाओं का तू रख ख्याल,
तुझे भी तो जीना है इसी कोलाहल में,
पूरी संजीदगी के साथ,

अपनी संवेदनाओं को ना तु और जगा,
मन कर तू विश्राम जरा, विश्राम जरा!