Showing posts with label आसमाँ. Show all posts
Showing posts with label आसमाँ. Show all posts

Thursday 25 January 2018

तिरंगा गणतंत्र

1. उठो देश

उठो देश! 
यह दिवस है स्वराज का,
गणतंत्र का, गण के तंत्र का,
पर क्युँ लगता?
यह गणराज्य कहीं है बिखरी सी,
जंजीरों में जकरा है मन,
स्वाधीनता है खोई सी,
पावन्दियों के हैं पहरे,
मन की अभिलाषा है सोई सी,
अंकुश लगे विचारों पे,
कल्पनाशीलता है बंधी सी!

उठो देश!
तोड़ कर ये सारे बंधन,
रच ले अपना गणतंत्र हम?
आओ सोचे मिलकर,
स्वाधीन बनाएँ मन अपना हम,
खींच दी थी किसी ने,
लकीरें पाबन्दियों की इस मन पर,
अवरुद्ध था कहीं न कहीं,
मन का उन्मुक्त आकाश सरजमीं पर,
हिस्सों में बट चुकी थी
कल्पनाशीलता कहीं न कहीं पर,
विवशता थी कुछ ऐसा करने की,
जो यथार्थ से हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या?
जिए या मरे?

उठो देश!
देखो ये उन्मुक्त मन,
आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
लेकिन कल्पना के चादर,
आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें
ये बेमेल सी विचारधाराएं,
भावप्रवणता हैं विवश,
खाने को सरहदों की ठोकरें,
देखी हैं फिर मैने विवशताएँ,
आर-पार सरहदों के,
न जाने क्यूँ उठने लगा है,
अंजाना दर्द कोई
इस सीने में..!

उठो देश,
जनवरी 26 फिर लिख लें...
हम अपनी जन्मभूमि पर..

2. मेरी जन्मभूमि

है ये स्वाभिमान की,
जगमगाती सी मेरी जन्मभूमि...

स्वतंत्र है अब ये आत्मा, आजाद है मेरा वतन,
ना ही कोई जोर है, न बेवशी का कहीं पे चलन,
मन में इक आश है,आँखों में बस पलते सपन,
भले टाट के हों पैबंद, झूमता है आज मेरा मन।

सींचता हूँ मैं जतन से,
स्वाभिमान की ये जन्मभूमि...

हमने जो बोए फसल, खिल आएंगे वो एक दिन,
कर्म की तप्त साध से, लहलहाएंगे वो एक दिन,
न भूख की हमें फिक्र होगी, न ज्ञान की ही कमी,
विश्व के हम शीष होंगे, अग्रणी होगी ये सरजमीं।

प्रखर लौ की प्रकाश से,
जगमगाएगी मेरी जन्मभूमि...

विलक्षण ज्ञान की प्रभा, लेकर उगेगी हर प्रभात,
विश्व के इस मंच पर,अपने देश की होगी विसात,
चलेगा विकाश का ये रथ, या हो दिन या हो रात,
वतन की हर जुबाॅ पर, होगी स्वाभिमान की बात।

तीन रंगों के विचार से,
रंग जाएगी ये मेरी जन्मभूमि...

3. तीन रंग

चलो भिगोते हैं कुछ रंगों को धड़कन में,
एक रंग रिश्तों का तुम ले आना,
दूजा रंग मैं ले आऊँगा संग खुशियों के,
रंग तीजा खुद बन जाएंगे ये मिलकर,

चाहत के गहरे सागर में...
डुबोएंगे हम उन रंगों को....

चलो पिरोते हैं रिश्तों को हम इन रंगों में,
हरा रंग तुम लेकर आना सावन का,
जीवन का उजियारा हम आ जाएंगे लेकर,
गेरुआ रंग जाएगा आँचल तेरा भीगकर,

घर की दीवारों पर...
सजाएँगे हम इन तीन रंगों को....

आशा के किरण खिल अाएँगे तीन रंगों से,
उम्मीदों के उजली किरण भर लेना तुम आँखों में,
जीवन की फुलवारी रंग लेना हरे रंगों से,
हिम्मत के चादर रंग लेना केसरिया रंगों से,

दिल की आसमाँ पर....
लहराएँगे संग इन तीन रंगों को....

Saturday 30 April 2016

किस गगन की ओर

ये खुला आसमाँ, पुकारता है अब किस गगन की ओर?
उड़ने लगे हैं जज्बातों के गुब्बारे आसमान में,
पंख पसारे उमरते अरमानों के रथ पर,
ये एहसास कैसे उठ रहे हैं अब इस ओर..............!

मन कब रुका है, उड़ चला ये अब उस गगन की ओर!
रुकने लगे हैं जज्बात ये मन के ये किस गाँव मे,
वो गाँव है क्या, उस नीले गगन की छाँव में,
छाँव वो ही ढूंढ़ता, मन ये मेरा उस ओर.......!

रोक लूँ मैं जज्बात को, क्युँ चला ये उस गगन की ओर,!
कोई थाम ले उन गुब्बारों को उड़ रहा है जो बेखबर,
क्युँ थिरकता बादलों में, लग न जाए उसको नजर,
वो उड़ रहा बेखबर, अब किस गगन की ओर.....!

धड़कनें बेताब कैसी, कह रहा चल उस गगन की ओर!

Sunday 24 April 2016

निःशब्द

निःशब्द कोई क्युँ बिखरे इस धरा पर,
निष्प्राण जीवन कैसे रह पाए इस अचला पर,
बिन मीत कैसे सुर छेड़े कोई यहाँ पर,
आह! स्वर निःशब्दों के निखरते आसमाँ पर।

प्रखर हो रहे हैं अब, निःशब्द चाँदनी के स्वर,
मूक शलभ ने भी ली है फिर यौवन की अंगड़ाई,
छेड़ी है निस्तब्ध निशा ने अब गीत गजल कोई,
तारों के संग नभ पर सिन्दूरी लाली छाई।

कपकपी ये कैसी उठी, निःशब्दो के स्वर में,
आ छलके है क्यूँ नीर, निःशब्दों के इन पलकों में,
हृदय उठ रही क्यूँ पीर निःशब्दों के आलय में,
काश! कोई तो गा देता गीत निःशब्दों के जीवन में।

Saturday 13 February 2016

स्वर नए गीत के गा

धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।

रहता था आसमाँ पर एक तारा यही कहीं,
गुजरा था टूट कर एक तारा कभी वहीं,
मिलते नही वहाँ उनकी कदमों के निशान अब,
रौशनी है प्रखर, पर दिखती नही राह अब।

भटक रहे हैं हम किन रास्तों पे अब?
दिखते नही दूर तक मंजिलों के निशान अब,
अंतहीन रास्तों मे भटका है अब कारवाँ,
बिछड़ी हुई हैं मंजिले, भटकी हुई सी राह अब।

बेसुरी लय सी रास्तों के गीत सब,
बजती नही धुन कोई भटकी हुई राहों में अब,
आरोह के सातों स्वर हों रहे अवरुद्ध अब,
धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।

Friday 18 December 2015

मन पाए न विश्राम क्यूँ?


मन पाए न विश्राम क्युँ?
चातक बन चाहे उड़ जाऊँ,
खुले गगन की सैर करूँ,
आसमान को बाहों मे भर लाऊं

मन की चाह अति निराली,
गति इसकी लांघे व्योम,
बात कहे वो अजब अनोेखी,
पर विवेक करता इसके विलोम,

मन की बात सुनुं तो,
जग कहता, अपने मन की करता है
दूसरों की तो सुनता ही नही,
बावरा है यूं ही डग भरता रहता है

इन्सानों के मन आपस मे कब मिलते है,
यहां तो मन पे पहरे हैं
मन की निराली बातें रह जाती,
मन मे ही व्यथित, कुचलित,
मन की तो भावनाएं ही जग में
कही जाती "कुत्सित"

मन तू कर विश्राम जरा,
अपनी पीड़ा को दे आराम जरा,
जग की वर्जनाओं का तू रख ख्याल,
तुझे भी तो जीना है इसी कोलाहल में,
पूरी संजीदगी के साथ,

अपनी संवेदनाओं को ना तु और जगा,
मन कर तू विश्राम जरा, विश्राम जरा!