Showing posts with label पुलिंदा. Show all posts
Showing posts with label पुलिंदा. Show all posts

Tuesday 19 January 2016

मुझे सींचकर तुम क्या पाओगे?

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ संवेदनाओं का,
रख दी गई है जो समेट उस कोने में,
व्यर्थ गई भावनाएँ मन को समझाने में।
बन चुका बस एक फसाना बेगाने में।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हुँ अरमानों का,
साँस छूट चुके है जिनके घुट-घुट के,
छुपा दी गई जिन्हे पीछे उस झुरमुट के,
कुछ मोल नहीं इन निश्छल जज्बातों के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?

मैं एक पुलिंदा हूँ कल्पनाओं का,
असंख्य तार टूट चुके हैं कल्पनाओं के,
गुजरेगी अब कैसे कंपन वेदनाओं के,
मृत हो चुके हैं संभावना संवेदनाओं के।

मुझे सींचकर भी तुम मुझमें क्या पाओगे?