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Saturday, 28 December 2019

मींड़

अक्सर, मेरे ही मींड़ गुनगुनाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

बिसरे वो, मेरे ही मींड़,
बहा ले आएगी, ये मंद समीर,
मुझको है मालूम, खामोश गजल हो तुम,
भूल चुके, बस हीड़ मेरे,
इक ठहरी सी, चंचल आरोह हो तुम,
अवरोह तलक, लौट आओगे,
झंकार वही, दोहराओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

रह-रह, जाग जाएगी,
बलखाती मूर्च्छनाओं से पीड़,
महसूस मुझे है, गुमसुम सा रहते हो तुम,
हो आहों में, हीड़ भरे,
खामोश लहर, सुरीली स्वर हो तुम,
दर्द भरे, मींड़ मेरे दोहराओगे,
विचलन, सह न पाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

अक्सर, आरोह मेरे,
सुन कर, रुक जाते हैं समीर,
लगता है जैसे, ऐसे ही ठहर चुके हो तुम,
मुर्छनाओं में, हो घिरे,
गँवाए सुध-बुध, यूँ सुन रहे हो तुम,
बंध कर, फिर लौट आओगे,
यूूँ ही, तुम रुक जाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

अक्सर, मेरे ही मींड़ गुनगुनाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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मींड़: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
१. मींड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव
२. संगीत में एक स्वर से दूसरे स्वर पर जाते समय मध्य का अंश ऐसी सुन्दरता से कहना कि दोनों स्वरों के बीच का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाय

हीड़: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
यह एक प्रकार का प्रबन्ध काव्य है, जो बुन्देल-खंड, मालवे, राजस्थान आदि में गूजर लोग दिवाली के समय गाते हैं

मूर्च्छना: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
संगीत के स्वरों का आरोह-अवरोह