Saturday 17 March 2018

टेढ़े मेढ़े मेड़ - खंड खंड भूखंड

खंड-खंड खेतों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

टेढी मेढ़ी लकीेरों से पटी ये धरती,
जैसे विषधर लेटी हो धरती के सीने पर,
चीर दिया हों सीना किसी ने,
चली हो निरंकुश स्वार्थ की तलवार, 
खंड खंड होते ये बेजुबान भूखंड.....

मानसिकता के परिचायक ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

ये तेरा, ये मेरा, ये खंड खंड बसेरा,
ये लालसा ये पिपासा, ये स्वार्थ का डेरा,
ये संकुचित होती मानसिकता,
ये सिमटते से रिश्तों का छोटा संसार,
ये खंड खंड हुए बिलखते भूखंड.....

खंड-खंड रिश्तों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

वाद-विवाद, रिश्तों में आई खटास, 
मन की भूखंड पर पनपते ये विषाद वॄक्ष,
अपनो के लहू से रंगे ये हाथ,
टेढे मेढे मेडों पर सरकता काला नाग!
यूं खंड खंड होते रिश्तों के भूखंड.....

खंड-खंड जीवन को करते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

गर होते ये मेड़ संस्कारों के,
कुसंस्कार प्रविष्ट न हो पाते जीवन में,
पनपते कुलीन विचार मन में,
मेड़ ज्ञान की दूर करती अज्ञानता,
स्वार्थ हेतु खंड खंड न होते ये भूखंड....

काश! निश्छल मन को न बांटते ये टेढ़े मेढ़े मेड़....

तारे चुरा ले गया कोई

उनींदी रातों से, झिलमिल तारे चुरा ले गया कोई!

तमस भरी काली रातों में,
कुछ तारे थे दामन मे रातों के,
निशा प्रहर, सहमी सी रात,
छुप बैठी वो, दामन में तारों के,
भुक-भुक जलते वो तारे,
रातों के प्यारे वो सारे,
अलसाए से कुछ थके हारे,
निस्तब्ध रातो की, बाहों में खो गई......

उनींदी रातों से, वो ही तारे चुरा ले गया कोई!

फिर टूटी रातों की तन्द्रा,
अंधियारों में तम की वो घिरा!
तारों की गम में वो रहा,
किससे पूछे वो, तारों का पता?
अब कौन बताए, कहां गए वो तारे?
खुद में खोए निशाचर सारे!
मदमाए से फिरते वो मारे-मारे,
तम की पीड़ा का, न था अन्त कोई....

तम की रातों से, क्युं तारे चुरा ले गया कोई!

टिमटिम जलती वो आशा!
इक उम्मीद, टूट गई थी सहसा!
व्याप्त हुई थी खामोशी,
सहमी सी वो, सिहर गई जरा सी!
दामन आशा का फिर फैलाकर,
लेकर संग कुछ निशाचर,
तम की राहों से गुजरे वो सारे,
उम्मीद की लड़ी, फिर जुड़ सी गई.....

इन रातों से, वो टिमटिम तारे न चुराए कोई!

Friday 16 March 2018

पन्नों के परे

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

कुछ शब्दों में अंकित पन्नों में गरे,
भावनाओं से उभर कर स्याही में लिपटे,
कल्पनाओं के रंगों से सँवरे,
बेजान, मगर हरदम जीवंत और ज्वलंत,
जज्बातों के कुलांचे भरते,
अनुभव के फरेब या हकीकत?
पन्नों पे गरे, शब्दों के ये खेत हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

इक इक शब्द, नेह-स्नेह से भरे,
सपनों के सतरंगी आसमान पर उड़ते,
नभ पर बिंदास पंख फैलाए,
मानो रच रहे कल्पना का नया आकाश,
अविश्वसनीय संरचना रचते,
या चक्रव्युह कोई खुद में भ्रमित!
पन्नों के परे! ये शब्दों के जंगल हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

किरदार कई इन पन्नों पर गढ़े,
एकसाथ विपरीत विचारधाराओं की पृष्ठें,
शक्ल इक किताब की लिए,
विचारधाराओं की संगम का आभास,
कोई नवधारा बनकर बहते,
या आपस मे लड़ते होते मूर्छित?
पन्नों के परे! ये व्यथा विन्यास हरे भरे!

इक जीवन, इक पन्नों में, इक पन्नों के परे.....

Thursday 15 March 2018

गुमसुम

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

न ही हृदय में आह के स्वर,
न ही भाव में पलते प्रवाह के ज्वर,
निस्तेज पड़ी मुख की आभा,
बुझी सी है वो तेज प्रखर.....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

मन के भीतर कैसा उद्वेलन?
अपने ही मन से कैसा निराश प्रश्न?
उद्वेलित साँसों में कैसा जीवन?
विक्षोभित ये हृदय के स्वर....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

नयन में ताराविहीन गगन,
साँसों के प्रवाह में उठती ये लपटें,
अगन के प्रदाह में जलता मन,
क॔पकपाते से ये तेरे स्वर....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर....

इसी शहर से

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...

ये तमाम रास्ते, कहीं दूर शहर से जाते हैं...
पर मेरे वास्ते, ये बंद नजर आते है!
किसी मोहपाश में हम यहाँ बंधे जाते हैं,
यूं शहर की धूल में बिखर जाते हैं?

हम न शीशा कोई ,जो पल में टूट जाते हैं...
फिसलकर हाथ से जो छूट जाते हैं!
हैं वही सोना, जो तपकर निखर जाते हैं,
जलकर आग में भी सँवर जाते हैं!

शहर की शुष्क आवोहवा बदल जाते है...
यूं खुश्बू की तरह यहाँ बिखर जाते हैं!
गर्मियों में फुहार बनकर बरस जाते है,
हम शहर के रहगुजर बन जाते हैं!

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...
भले ही हमसफर न कोई हम पाते हैं!
यूं बार-बार इस दिल को हम समझाते हैं,
फिर न जाने हम खुद बहक जाते हैं?

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...

Tuesday 13 March 2018

इस शहर में

इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...

चुप ही चुप, खामोशियों को तोलते हैं,
न जाने क्यों, कम ही लोग बोलते हैं...

वो गूंगे हैं जो, बस आँखों से तोलते हैं,
चुप ही चुप, न जाने क्या टटोलते हैं...

गर जरूरत हो, तो वे जुबां खोलते हैं,
आगे पीछे वो, गैरों के भी डोलते हैं...

मतलब से, वो जुबाने जहर घोलते है,
जुबा-एँ-खंजर, वो सीने में घोपते हैं...

जुबान पे मिश्री, वो कम ही घोलते हैं,
कहाँ मन को, वो कभी टटोलते हैं...

बीच शहर के, वो हृदय जो खोलते हैं,
पागल है वो!,  सब यही बोलते है....

फितरत में, तो बस फरेब ही पलते हैं,
इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...

बातें

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

वो चंद किस्से, वो चंद मुलाकातें,
फिर न जाने......
तुम कहां और हम कहां थे,
अब दामन में आए....
ये छोटे से दिन, वो लम्बी सी रातें....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

कुछ यादों के पल मिले थे जिन्दगी के,
वो दो चार पल......
जब बहके थे हम दिल्लगी से,
जीवंत पल वो खुशी के.....
अब गूंजते है जेहन में वो ही बातें.....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

वो ही चंद किस्से, वो ही चंद बातें,
फिर वही मुलाकातें....
वो ही संग जीवंत धड़कनों का,
वो बहकी सी जज्बातें....
काश! फिर वही पल मुझे मिल पाते.....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

Sunday 11 March 2018

विलम्बित लय

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

विचरते मन में ख्याल कई,
धुन कई, पर लय ताल एक ही!
ख्यालों में दिखती इक तस्वीर वही,
जैसे वो हो चित्रकला कोई,
नाजों से गढी, खूबसूरत बला कोई,
वहीं ठहर गई हो जैसे मन की द्रुत गति,
अब लय विलम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

मन का अवलम्बन या वीतराग,
विलम्बित लय में मन का द्रुत राग,
दीवारों पर टंगी वो चंचल सी तस्वीर,
इकटक खामोशी तोड़ती हुई,
निलय में गूंजती विलम्बित गीत वही,
धड़कन में बजती अब धीमी संगीत वही,
अब अनुराग विलंम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

बंदिश का मनमोहक विस्तार,
आलाप, स्वर, तान का नव विहार,
शमाँ बाँधती विलंबित स्वर की बंदिश,
मूर्त होती वो चित्रकला कोई,
अलवेला रूप सुहावन हो जैसे कोई,
हृदयपटल पर बंदिशें अंकित करती हुई,
अब ख्याल विलंम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

Saturday 10 March 2018

पवन बावरी

न जाने पंख कैसे लिए, चली है तू पवन बावरी!

यूं ही किस देश को तू चली?
तू कह दे जरा, क्या है ये माजरा?
है तेरे मन में क्या,
मैं भी तो सुन लूं जरा!
थर्राई है क्यूं पत्तियाँ, तू जो अचानक चली!

बयार मंद सी थी तू भली!
अब अचानक ये उठा कैसा गुबार?
मचला है मन तेरा,
या उठ रहा कोई ज्वार!
मद में यूं बहती हुई, संग तू किसके चली!

सुन! यूं शोर तू ना मचा!
सन सनन-सनन यूं न तू गुनगुना!
गीत कैसा है ये!
रुक जरा तू मुझको सुना!
बहकी सी सुरताल में, बवाल तू ना मचा!

तू तो प्राण का आधार है!
अन्दर तेरे, तुफान सा क्युं मचा?
ये बवंडर सा क्यूं,
ठेस तुझको लगी है क्या?
अशान्त तू है क्यूं, बहकी है क्यूं बावरी?

ऐ री पवन! तू हुई क्यूं बावरी?
ये अचानक तुझको हुआ है क्या?
यूं चातक कोई,
तेरा मन ले उड़ा है क्या?
तू भटक रही है क्यूं, दिशा-दिशा यूं बावरी?

न जाने पंख कैसे लिए, चली है तू पवन बावरी!

Thursday 8 March 2018

खामोश अभिव्यक्ति

कुछ उभरते अल्फाजों की अभिव्यक्ति,
कुछ चुप से हृदय के, खामोशियों की प्रशस्ति,
दे गई, न जाने मन को ये कैसी शक्ति!

सशंकित था मन, उन खामोशियों से,
उत्साह संवर्धित कर गई, वो बोलती खामोशी,
अचंभित सी कर गई वो अभिव्यक्ति!

वही खामोश से अल्फाज,
अब इन बहती हवाओं से चुनकर,
अनुरोध करता हूं मन को,
तू ख्वाबों को रख...
कहीं खामोशियों से बुनकर!
वो रेशमी अहसास तू देना उन्हे,
सो जाएंगे वो भी...
खामोशियाँ ही ओढ़कर,
फिर तू भी बुन लेना खुद को,
हर पल फना होती,
इस बहती सी दुनियाँ को भूलकर!

अभिव्यक्ति! बिना किसी अतिशयोक्ति,
उभरेंगी लफ्जोें में, चुप से हृदय की अभिव्यक्ति!
उत्साहवर्धन करेंगो, वो बोलती खामोशी!

निःसंकोच! वही टूटती सी खामोशी,
वही चुप से हृदय के, खामोशियों की प्रशस्ति,
तब भी अचंभित करेंगी ये अभिव्यक्ति!