खंड-खंड खेतों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...
टेढी मेढ़ी लकीेरों से पटी ये धरती,
जैसे विषधर लेटी हो धरती के सीने पर,
चीर दिया हों सीना किसी ने,
चली हो निरंकुश स्वार्थ की तलवार,
खंड खंड होते ये बेजुबान भूखंड.....
मानसिकता के परिचायक ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...
ये तेरा, ये मेरा, ये खंड खंड बसेरा,
ये लालसा ये पिपासा, ये स्वार्थ का डेरा,
ये संकुचित होती मानसिकता,
ये सिमटते से रिश्तों का छोटा संसार,
ये खंड खंड हुए बिलखते भूखंड.....
खंड-खंड रिश्तों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...
वाद-विवाद, रिश्तों में आई खटास,
मन की भूखंड पर पनपते ये विषाद वॄक्ष,
अपनो के लहू से रंगे ये हाथ,
टेढे मेढे मेडों पर सरकता काला नाग!
यूं खंड खंड होते रिश्तों के भूखंड.....
खंड-खंड जीवन को करते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...
गर होते ये मेड़ संस्कारों के,
कुसंस्कार प्रविष्ट न हो पाते जीवन में,
पनपते कुलीन विचार मन में,
मेड़ ज्ञान की दूर करती अज्ञानता,
स्वार्थ हेतु खंड खंड न होते ये भूखंड....
काश! निश्छल मन को न बांटते ये टेढ़े मेढ़े मेड़....
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