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Thursday 15 April 2021

पत्ता

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

ऋतुमर्दन ही होना था, इक दिन तेरा, 
ऋतुओं में ही, खोना था,
ऋतुओं पर, ना करना था यूँ एतबार,
ऋतु पालक, ऋतु संहारक,
ऋतुओं से, रखना था, विराग जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

डाली पर पनपे, यूँ डाली से ही छूटे!
बिखरे, यह कैसी, इति!
व्यक्त और मुखर, ऋतुओं से बेहतर,
अभिव्यक्ति ही था कारण,
मौसमों में, रहना था अव्यक्त जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

निखर आए, तेरे अंग, ऋतुओं संग,
यूँ, नजरों में, चढ़ आए,
ऋतुओं संग, पनपता, अनुराग तेरा,
शायद, अखरा हो उनको,
डाली को करना था, विश्वास जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 23 March 2019

क्षणिक अनुराग

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

दो छंदों का यह कैसा राग?
न आरोह, न अनुतान, न आलाप,
बस आँसू और विलाप.....
ज्यूँ तपती धरती पर,
छन से उड़ जाती हों बूंदें बनकर भाफ,
बस तपन और संताप....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

गीत अधुरी क्यूँ उसने गाई,
दया तनिक भी फूलों पर न आई,
वो ले उड़ा पराग....
लिया प्रेम, दिया बैराग,
ओ हरजाई, सुलगाई तूने क्यूँ ये आग?
बस मन का वीतराग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

सूना है अब मन का तड़ाग,
छेड़ा है उस बैरी ने यह कैसा राग!
सुर विहीन आलाप....
बे राग, प्रीत से विराग,
छम छम पायल भी करती है विलाप,
बस विरह का सुहाग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

(मेरी ही, एक पुरानी रचना पुनःउद्धृत)
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 13 August 2018

ऋतु परिवर्तन

ॠतुओं का अनवरत परिवर्तन....
क्या है ये.....

यह संधि है या है ये संधि विच्छेद?
अनवरत है या है क्षणिक प्रभेद,
कई टुकड़ों में है विभक्त,
या है ये अनुराग कोई अविभक्त,
कैसा ये क्रमिक अनुगमन.....

देखा है हमनें.....

संसृति का निरंतर निर्बाध परिवर्तन,
और बदलते ॠतुओं संग,
मुस्कुराती वादियों का मुरझाना,
कलकल बहती नदियों का सूख जाना,
बेजार होते चहकते दामन....

और फिर ...

उन्ही ऋतुओं का पुनः व्युत्क्रमण,
कोपलों का नवीकरण,
मद में डूबा प्यारा सा मौसम,
आगोश में फिर भर लेने का फन,
बहकता सा कुंवारा मन......

मैं इक कविमन...

उत्सुकता मेरी बढ़ती जाए हरक्षण,
शायद है यही सर्वश्रेष्ठ लेखन!
संसृति का ये श्रृंगार अनुपम,
यही तो है उत्कृष्ठ सौन्दर्य विमोचन,
ॠतुओं का क्रमिक परिवर्तन.....

सँवर रही हो जैसे दुल्हन....

Sunday 11 March 2018

विलम्बित लय

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

विचरते मन में ख्याल कई,
धुन कई, पर लय ताल एक ही!
ख्यालों में दिखती इक तस्वीर वही,
जैसे वो हो चित्रकला कोई,
नाजों से गढी, खूबसूरत बला कोई,
वहीं ठहर गई हो जैसे मन की द्रुत गति,
अब लय विलम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

मन का अवलम्बन या वीतराग,
विलम्बित लय में मन का द्रुत राग,
दीवारों पर टंगी वो चंचल सी तस्वीर,
इकटक खामोशी तोड़ती हुई,
निलय में गूंजती विलम्बित गीत वही,
धड़कन में बजती अब धीमी संगीत वही,
अब अनुराग विलंम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

बंदिश का मनमोहक विस्तार,
आलाप, स्वर, तान का नव विहार,
शमाँ बाँधती विलंबित स्वर की बंदिश,
मूर्त होती वो चित्रकला कोई,
अलवेला रूप सुहावन हो जैसे कोई,
हृदयपटल पर बंदिशें अंकित करती हुई,
अब ख्याल विलंम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

Monday 25 December 2017

क्षणिक अनुराग

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

दो छंदों का यह कैसा राग?
न आरोह, न अनुतान, न आलाप,
बस आँसू और विलाप.....
ज्यूँ तपती धरती पर,
छन से उड़ जाती हों बूंदें बनकर भाफ,
बस तपन और संताप....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

गीत अधुरी क्यूँ उसने गाई,
दया तनिक भी फूलों पर न आई,
वो ले उड़ा पराग....
लिया प्रेम, दिया बैराग,
ओ हरजाई, सुलगाई तूने क्यूँ ये आग?
बस मन का वीतराग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

सूना है अब मन का तड़ाग,
छेड़ा है उस बैरी ने यह कैसा राग!
सुर विहीन आलाप....
बे राग, प्रीत से विराग,
छम छम पायल भी करती है विलाप,
बस विरह का सुहाग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

Monday 27 February 2017

फासलों मॆं माधूर्य

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग....

बोझिल सा होता है जब ये मन,
थककर जब चूर हो जाता है ये बदन,
बहती हुई रक्त शिराओं में,
छोड़ जाती है कितने ही अवसाद के कण,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मन को देती हैं माधूर्य के कितने ही एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

अनियंत्रित जब होती है ये धड़कन,
उलझती जाती है जब हृदय की कम्पन,
बेवश करती है कितनी ही बातें,
राहों में हर तरफ बिखरे से दिखते है काँटे,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मखमली वो छुअन देती है माधूर्य के एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

Thursday 19 January 2017

टहनी

अनुराग के मंजर टहनी पर,
खिल आई थी फिर खुश्बू लेकर,
मिला हो जैसे उस टहनी को,
किसी कठिन तपस्या का प्रतिफल।

घनीभूत हुई थी रूखे तन पर,
उमरते आशाओं के बादल,
फूट पड़े थे जैसे इच्छाओं के स्वर,
अन्त: तक भीगा मन का मरुस्थल।

झूम उठी वो टहनी मंजराकर,
महक उठी थी फिजाएँ,
उसकी भीनी सी खुश्बू लेकर,
स्वागत मे उसने फैलाए थे आँचल।

रूप श्रृंगार यौवन का लेकर,
हरित हुई थी वो टहनी,
सृष्टि मुस्काई मुखरित होकर,
मंजर मंजर खिल आए थे मधुफल।

क्षण आकर्षण के बिखेरकर,
मुरझाई अब वो टहनी,
अगाध अनुराग के खुश्बू देकर,
प्रतिफल मे पाया था सूना सा आँचल।

Saturday 19 November 2016

हुई है शाम

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

लबों से बुदबुदाओ, तराने प्रणय के गाओ,
संध्या किरण की लहर पर, तुम झिलमिलाओ,
फिर न आएगी लौटकर, ये शाम सुरमई,
तुम बिन ये गा न पाएगी, प्रणय के गीत कोई,
गीत फिर से प्रणय के, तुम वही दोहराओ,

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

ऐ मन के मीत मेरे, तुम पंछियों सी चहचहाओ,
सिमटती कली सी, तुम लजाती दुल्हन बन आओ,
फिर लौट कर न आएगी, ये शाम चम्पई,
तुम बिन कट न पाएगी, ये रुत, ये प्रहर, ये घड़ी,
तराने मिलन के लिखकर, तुम राग में सुनाओ,

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

चाँद तारों से मिलने, तुम भी फलक पे आओ,
रूठो ना मुझसे यूँ तुम, दिल की पनाहों में आओ,
झूमकर फिर ना चलेगी, लौटी जो पुरवाई,
तुम बिन न खिल सकेगा, फलक पे चाँद कोई,
प्रणय के तार छेड़कर, अनुराग फिर जगाओ,

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

Tuesday 30 August 2016

माधूर्य

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग....

बोझिल सा हो जब ये मन,
थककर जब चूर हो जाता है ये बदन,
बहती हुई रक्त शिराओं में,
छोड़ जाती है कितने ही अवसाद के कण,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मन को देती हैं माधूर्य के कितने ही एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

अनियंत्रित जब होती है धड़कन,
उलझती जाती है जब हृदय की कम्पन,
बेवश करती है कितनी ही बातें,
राहों में हर तरफ बिखरे से दिखते है काँटे,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मखमली वो छुअन देती है माधूर्य के एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

Tuesday 5 July 2016

कुछ बोल दे बादल

ओ चिर काल से नभ पर विचरते बादल,
इस वसुधा की कण-कण को भिगोते बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

क्षार सा खारा जल तू पीता,
जिह्वा से तेरी बहता बस मीठा सा जल,
बूंदों में तेरी रचती गंगा-जमुना जल,
तू कितना प्यारा कितना अनमोल बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

गम की बोझ से है भरा पड़ा तू,
तम की घोर कालिमा मे ही लिपटा तू,
हर पल टूटा, हर पल बिखरा है तू,
तेरी धीरज से ना कोई अंजान बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

तम रचता मानव तन के अन्दर भी,
गम के काटें चुभते इस मानव तन को भी,
तेरा मीठा जल पीता क्षुधा मिटाने को भी,
मुख से लेकिन छूटते कड़वे ही बोल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

ओ राग अनुराग में लिप्त घुमरते बादल,
ओ मेरे हृदयाकाश पर उड़ते उन्मुक्त बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

Thursday 28 April 2016

अपरिचित अपना सा

परिचित ही था मेरा वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

यह कैसा परिचय, एक अपरिचित शख्स से,
ओझल है जो अबतक परिचय की नजरों से,
कल्पना की सतरंगी घोड़ों पर चढ़ आता वो,
परिचय की किन डोरों से मन को बांधता वो।

परिचित लगता अब वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

हम कहते है जिसे परिचय, क्या सच में है वो,
या प्रतिविम्ब है इक, या बस इक छलावा वो,
अपरिचित सा जब भी कोई इस जीवन में हो,
प्रश्न अनेंकों मन में, उठने लगते न जाने क्यों।

परिचित होने से पहले, अपरिचित से लगते क्युँ वो!

कल्पना हो या छलावा, मन को है प्यारा वो,
अन-सुने गीत यादों में, हर पल गनुगुनाता वो,
अनुराग स्पर्श के, कल्पनाओं में अलापता वो,
जन्मों का ये परिचय, अपरिचित कब था वो।

परिचित सदियों से वो, अपरिचित मुझको  कब था वो!

Wednesday 13 April 2016

श्रृंगार

श्रृंगार ये किसी नव दुल्हन के, मन रिझता जाए!

कर आई श्रृंगार बहारें,
रुत खिलने के अब आए,
अनछुई अनुभूतियाें के अनुराग,
अब मन प्रांगण में लहराए!

सृजन हो रहे क्षण खुमारियों के, मन को भरमाए!

अमलतास यहां बलखाए,
लचकती डाल फूलों के इठलाए,
नार गुलमोहर सी मनभावन,
मनबसिया के मन को लुभाए।

कचनार खिली अब बागों में, खुश्बु मन भरमाए!

बहारों का यौवन इतराए,
सावन के झूलों सा मन लहराए,
निरस्त हो रहे राह दूरियों के,
मनसिज सा मेरा मन ललचाए।

आलम आज मदहोशियों के, मन डूबा जाए!

Friday 29 January 2016

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

मैं प्रेमी जीवन के स्वर्गिक स्पर्शो का, 
मै अनुरागी जीवन के हर्ष विमर्शों का,
मैं प्रेमी विद्युत सम मधुर स्मृतियों का।

शीतल उज्जवल अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

उज्जवलता दूँ मैं जीवन भर जलकर,
निश्चल बस जाऊँ हृदय संग चलकर,
अंबर की धारा से उतर आऊँ भू पर।

महत् कर्म मधुरगंध छू जाते अंतर के स्वर!

उच्च उड़ान भर लूँ मैं महत् कर्म कर,
त्याग दूँ जीवन के चमकीले आडंबर,
पी जाऊँ मधुरगंध साँसों में घोल कर।

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!