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Sunday, 13 March 2022

हार जाता हूँ

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

हरा देती है, मुझको, एक झलक तेरी,
बढ़ा जाती है, और ललक मेरी,
एक झलक वही फिर पाने को, बार-बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझमें, शायद, सागर है इक समाया,
है गागर सा, जो छलक आया,
उन लहरों संग, ठहर जाने को, हर बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

मन ही जो हारा, करे क्या बेचारा?
जागे, तक-तक रातों का तारा,
विवशता वश, जताने अपना अधिकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

जैसे, थका हारा, एक मुसाफिर मैं, 
भाए ना, जिसको, कोई भी शै,
सारे स्वप्न अधूरे, कर लेने को साकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 31 October 2021

मैं और तारा

इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

यूं, दोनों ही एकाकी,
ना संगी, ना कोई साकी,
भूला जग सारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

छूटे, दिवस के सहारे,
थक-कर, डूबे सारे सितारे,
कितना बेसहारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

धीमी, साँसों के वलय,
उमरते, जज़्बातों के प्रलय,
तमस का मारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

ठहरा, बेवश किनारा,
गतिशील, समय की धारा,
ज्यूं, हरपल हारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

दोनों ही पाले भरम,
झूठे, कितने थे वो वहम,
टूट कर बिखरा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

दोनों, मन के विहग,
बैठे, जागे अलग-अलग,
सोया जग सारा,
इधर मैं और उधर इक तारा,
दोनों बेचारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 13 April 2021

गैर लगे मन

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

गैर लगे, अपना ही मन,
हारे, हर क्षण,
बिसारे, राह निहारे,
करे क्या!
देखे, रुक-रुक वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

तन्हा पल, काटे न कटे,
जागे, नैन थके,
भटके, रैन गुजारे,
करे क्या!
ताके, तेरा पथ वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

इक बेचारा, तन्हा तारा,
गगन से, हारा,
पराया, जग सारा,
करे क्या! 
जागे, गुम-सुम वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

संग-संग, तुम होते गर,
तन्हा ये अंबर,
रचा लेते, स्वयंवर,
करे क्या!
हारे, खुद से वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 January 2021

क्या रह सकोगे

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ तो, विचरते हो, मुक्त कल्पनाओं में, 
रह लेते हो, इन बंद पलकों में,
पर, नीर बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

वश में कहाँ, ढ़ह सी जाती है कल्पना,
ये राहें, रोक ही लेती हैं वर्जना, 
इक चाह बन, रह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ ना होता, ये स्वप्निल आकाश सूना!
यूँ, जार-जार, न होती कल्पना,
इक गूंज बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

तुम कामना हो, या, बस इक भावना,
कोरी.. कल्पना हो, या साधना,
यूँ, भाव बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 14 October 2020

गर हो तो रुको


गर हो तो, रुको....

कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 March 2018

तारे चुरा ले गया कोई

उनींदी रातों से, झिलमिल तारे चुरा ले गया कोई!

तमस भरी काली रातों में,
कुछ तारे थे दामन मे रातों के,
निशा प्रहर, सहमी सी रात,
छुप बैठी वो, दामन में तारों के,
भुक-भुक जलते वो तारे,
रातों के प्यारे वो सारे,
अलसाए से कुछ थके हारे,
निस्तब्ध रातो की, बाहों में खो गई......

उनींदी रातों से, वो ही तारे चुरा ले गया कोई!

फिर टूटी रातों की तन्द्रा,
अंधियारों में तम की वो घिरा!
तारों की गम में वो रहा,
किससे पूछे वो, तारों का पता?
अब कौन बताए, कहां गए वो तारे?
खुद में खोए निशाचर सारे!
मदमाए से फिरते वो मारे-मारे,
तम की पीड़ा का, न था अन्त कोई....

तम की रातों से, क्युं तारे चुरा ले गया कोई!

टिमटिम जलती वो आशा!
इक उम्मीद, टूट गई थी सहसा!
व्याप्त हुई थी खामोशी,
सहमी सी वो, सिहर गई जरा सी!
दामन आशा का फिर फैलाकर,
लेकर संग कुछ निशाचर,
तम की राहों से गुजरे वो सारे,
उम्मीद की लड़ी, फिर जुड़ सी गई.....

इन रातों से, वो टिमटिम तारे न चुराए कोई!

Thursday, 19 May 2016

नभ पर वो तारा

नभ पर हैं कितने ही तारे, एकाकी क्युँ मेरा वो संगी?

वो एकाकी तारा! धुमिल सी है जिसकी छवि,
टिमटिमाता वो प्रतिक्षण जैसे मंद-मंद हँसता हो कोई,
टिमटिमाते लब उसके कह जाती हैं बातें कई,
एकाकी सा तारा वो, शायद ढूंढ़ता है कोई संगी?

वो एकाकी तारा! नित छेड़ता इक स्वर लहरी,
पुकारता वो प्रतिक्षण जैसे चातक व्यग्र सा हो कोई,
टिमटिमाते लब जब गाते गीत प्यारी सी सुरमई,
है कितना प्यारा वो, पर उसका ना कोई संगी!

वो एकाकी तारा! मैं हूँ अब उसका प्रिय संगी,
कहता वो मुझसे प्रतिक्षण मन की सारी बातें अनकही,
टिमटिमाते लब उसके हृदय की व्यथा हैं कहती,
एकाकी तारे की करुणा में अब मैं ही उसका संगी!

Sunday, 28 February 2016

किस तारे में?

अम्बर के धुंधले गहरे अंधियारे में,
देखती हैं आँखे उस सुंदर तारे में,
बिछड़ा मुझसे जो इस जीवन में,
मिट चुके हैं स्वर जिसके शून्य में,
खो गई जिसकी निशानी धूलि में।

गाता है अब वो पार उस अंबर से,
स्वर जिसके मिटे नहीं इस मन से,
हृदय कंपित अब भी उस स्वर से,
धूल कण सा उड़ता वो मानस में,
स्वर गुम हुई है जाने किस तारे में।

था इस सूने जीवन का आधार वो,
इक पल में छूटा कैसे हाथों से वो,
कहते हैं सब  रहता अंबर पार वो,
कभी दिखता है किसी तारे में वो,
तलाशता हूँ अंबर का मैं तारा वो।

लाखों तारे टकते ऱोज इस अंबर मे,
धूलकण बन वो जाने किस तारे में,
संगीत गुमशुम जाने किस शून्य में,
नीर नीर सी छलकी इन  आँखों में,
जाने रहता है वो अब किस तारे में।

Saturday, 13 February 2016

स्वर नए गीत के गा

धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।

रहता था आसमाँ पर एक तारा यही कहीं,
गुजरा था टूट कर एक तारा कभी वहीं,
मिलते नही वहाँ उनकी कदमों के निशान अब,
रौशनी है प्रखर, पर दिखती नही राह अब।

भटक रहे हैं हम किन रास्तों पे अब?
दिखते नही दूर तक मंजिलों के निशान अब,
अंतहीन रास्तों मे भटका है अब कारवाँ,
बिछड़ी हुई हैं मंजिले, भटकी हुई सी राह अब।

बेसुरी लय सी रास्तों के गीत सब,
बजती नही धुन कोई भटकी हुई राहों में अब,
आरोह के सातों स्वर हों रहे अवरुद्ध अब,
धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।