Saturday, 26 December 2015

किरणों ने खोले हैं घूंघट


किरणों ने फिर खोले है घूंघट,
                   तिमिर तिरोहित बादलों के,
कलुषित रजनी हुआ तिरोहित,
                   संग ऊर्जामयी उजालों के।

अनुराग रंजित प्रबल रवि ने,
                    छेड़ी फिर सप्तसुरी रागिणी,
दूर हुआ अवसाद प्राणों का,
                    पुलकित हुई रंजित मन यामिनी।

ज्योतिर्मय हुआ ज्योतिहीन जन,
                    मिला विश्व को जन-लोचन तारा,
अवसाद मिटे हुआ जड़ता विलीन,
                    मिला मानवता को नव-जीवन धारा।

शाकाहारी मांसाहारी

एक शाकाहारी नें गर्व से कहा, 
साग सब्जी भून रहा हूँ मैं खाने को,
जीवन नहीं लेता मैं किसी कि
अपनी क्षुधा, भूख, तृष्णा मिटाने को।

मैने कहा यह तो है सापेक्षिक समझ,
कण-कण में रजते बसते हैं प्राण,
कोशिकाओं ऊतकों से बनते ये भी,
तुम भी लेते हो प्राण उस कण की।

उन कोशिकाओं मे भी होती है जान,
श्वाँस लेते ये भी इन्हे भी होती है पीड़ा,
दर्द हो सके तो तू इसकी भी पहचान,
स्वार्थ में रजकर क्यों रचता है तू भी स्वांग।

कण कण मे बसे हैं सूक्ष्म प्राण
प्रसव पीड़ा तू इनकी भी पहचान।
हो चुका था वो बिल्कुल निरुत्तर ,
विवश हो उठे थे उसके प्राण ।

शाकाहारी मांसाहारी तो है विभिन्र रुचि बस,
नही झलकते इनसे अलग विचार,
भाव अगर हो सूक्ष्म जीवन की रक्षा,
करो तुम कर्म महान हो जग का कल्याण ।

आरोह-ठहराव-अवरोह

आरोह अगर सत्य है तो, अवरोह भी अवश्यमभावी,
उत्थान अगर सम्मुख है तो, पतन भी प्रशस्त प्रभावी,
जीवन चेतन सत्य है तो, मृत्यु भी है शास्वत भावी,
समुन्दर मे है ज्वार प्रबल तो, भाटा भी निरंतर हावी।
आरोह है जीवन के उत्थान की तैयारी.........
जैसे खेत मे बीजों का अंकुरित होना,
खिलते कलियों-फूलों का इठलाना,
काली घटाओं का नभ पर छा जाना,
मदमाते सावन का झूम के बरस जाना,
समुद्र में अल्हर ज्वार का उठ जाना,
सुबह के लाली की आँखों का शरमाना,
प्रात: काल पंछियों का चहचहाना,
नव दुलहन का पूर्ण श्रृंगार कर जीवन में..........
..............आशाओं के नव दीप जलाने की बारी।
अवरोह है जीवन के ढलने की बारी.........
जैसे खेतों के बीजों का पौध बन फल जाना,
कलियों-फूलों के चेहरों का मुरझाना,
काली घटाओं का मद्धिम पड़ जाना,
सावन की मदिरा का सूखकर थम जाना,
समुद्री ज्वार का भाटा बन लौट जाना,
सूरज की किरणों का तेज निस्तेज पड़ जाना,
पंछियों का थककर वापस घर लौट आना,
दुल्हन का श्रृंगार जीवन भट्ठी में झौंक.........
............संध्या प्रहर मद्धिम दीप जलाने की तैयारी।
पर आरोह अवरोह के पलों के मध्य,
                  आता है पल ईक ठहराव का भी,
कुछ अंतराल के लिए ही सही पर,
                  दे जाता है इनको अल्पविराम भी,
ठहराव ही तो क्षण हैं, दायित्व पूरा कर जाने को,
मानव से मानव भावना की, गठजोर कर जाने को,
संसार की सारी खुशियाँ, दामन में समेट ले जाने को,
उपलब्धियों की सार्थकता, अर्थपूर्ण कर जाने को,
अवरोह बेला उन्मादरहित, अनुकरणीय बना जाने को!
जैसे सा, रे, ग, म, प, ध, नी, सा,
                 सा, नी, ध, प, म, ग, रे, सा के मध्य,
सा - है ठहराव, अल्पविराम,सम की स्थिति,
                सुर नही सध सकते बिन इनके पूर्ण।
सम है तो निर्माण है संभव,
                         वर्ना है विध्वंश की बारी !!!!!!!!!!

Friday, 25 December 2015

जीवन क्या है?



जीवन इक डगर है, ठहर नहीं तू चलता चल,
पथ हों दुर्गम, रख साँसों में दम बढ़ता चल।

जीवन इक लहर है, पतवार लिए तू बढ़ता चल
धैर्य बना ध्रुवतारा, विपदाओं को परे करता चल।

जीवन इक समर है, हर संकट से तू लड़ता चल,
आत्मबल से हर क्षण को विजित करता चल।

जीवन इक प्यार है, दिलों से नफरत को तू तजता चल,
कर हिय को झंकृत, द्वेष घृणा पर विजय पाता चल।

जीवन इक समर्पण है, हृदय प्राण किसी को देकर चलता चल,
हाथों को हाथों मे ले, उनके दुख तू हरता चल।

जीवन इक विश्वास है, हर बाधाओं से मुक्त हो बढ़ता चल,
दुख से हारना नियति नहीं आशा और लगन से तू विजय पाता चल।

जीवन इक एहसास है, जियो हर क्षण को तुम बना संबल,
हर आने वाला पल, जुड़ जाए अतीत से हो विकल।

शब्द मुझ तक पहुँच नही पाते

तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच नहीं पाते,
होठों से मंद मंद फूटे शब्दों के कंपन,
आँखों से निकली प्रकाश की किरण,
चाहें बंधन तोड़ युगों से मुझ तक आने को।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?

दूरी तय करते युग बीते शब्दों को,
फासले ये तय कर नही पाते हैं ?
कंपन किरण से कब जीत पाते हैं?
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?

प्रकाश की प्रस्फुटन, शब्दों की ध्वनि से तेज,
आंखों की चंचल भाषा, मृदु आवाज़ से चतुर,
शब्दों से पहले पहुँच, ये ठहर जाते हैं।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?

आँखों की चपल भाषा, मैं मूरख क्या जानूं,
शब्द-स्पंदन से ही, मैं भावों को पहचानुं,
पर मर्यादाओं की सीमाओं में सिमटे शब्द,
उल्लंघित करने का दुस्साहश नही कर पाते हैं,
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?

क्षण-क्षण मधु-स्मृतियाँ

धुँधली रेखायें, खोई मधु-स्मृतियों के क्षण की,
चमक उठें हैं फिर, विस्मृतियों के काले घन में,

घनघोर झंझावात सी उठती विस्मृतियों की,
प्रलय उन्माद लिए, उर मानस कम्पन में,

जाग उठी नींद असंख्य सोए क्षणों की,
हृदय प्राण डूब रहे, अब धीमी स्पन्दन में,

गहरी शिशिर-निशा में गूंजा जीवन का संगीत,
जीवन प्रात् चाहे फिर, अन्तहीन लय कण-कण में,

जीवन पार मृत्यु रेखा निश्चित और अटल सी,
प्राण अधीर प्रतिपल चाहे मधुर विस्मृति प्रांगण मे,

बीते क्षणों के स्पंदन में जीवन-मरण परस्पर साम्य,
मिले जीवन सौन्दर्य, मर्त्य दर्शन, प्रतिपल हर क्षण में,

धुँधली रेखाओं की उन खोई मधु-स्मृतियों संग,
कर सकूं मृत्यु के प्रति, प्राणों का आभार क्षण-क्षण में!

जन्मदिन की बधाई

25th December
मेरे प्यारे विनय भैया को जनमदिन की ढेर सारी शुभकामनाएँ
Wish you Bhaiya a happy birthday…

ये जनम दिन है वृहद, कोई साधारण नही,
मन में जिसके अपार करुणा, दया व प्यार,
वही सर्वव्यापी मसीहा, पैदा हुआ था आज,
प्रीत की सीख देकर जो, रचता रहता नव-संसार।

वाणी मे जिसकी, घुलती है सरलता-मधुरता,
प्राणों मे जिसके, बसता है अनंत प्यार,
शब्दों मे जिसकी, ढलती है मृदु कोमलता,
हृदय में जिसके, बसती हैं मृदुलता अपार।

जनम लिया था उसने, देने जग को उपहार,
खुद पीड़ा मे रहकर भी, हरता औरों के दुख,
कष्टों को समेट स्वयम् में, करता रहता परोपकार,
जनम लिया है उसी परम ने, उन्हें सादर नमस्कार।

Thursday, 24 December 2015

ओस के बूंदों की प्रीत

आखिर प्रीत जो ठहरी ...बूंदों से!!
इन ओस की
अल्प बूंदों से भी,
बुझ सकती है मेरी प्यास,
जरा ठहरो तो सही।

पर वो तो ओस हैं,
वो भी एक बूंद,
क्षणिक हैं इनका जीवन,
क्या बुझा पाएगी ये प्यास?
सम्पूर्ण धरा है इसकी प्यासी।

ओस की अल्प बूँद,
तुम्हारा लक्ष्य महान,
अपना हश्र जानते हुए भी
बिछ जाती हो हर रात
धरा के 
कण-कण पर,
इसकी प्यास बुझाने,
आखिर प्रीत जो ठहरी ...!!

तलाश

विस्तृत सा आकाश है,
फिर भी तन्हाईयों का एहसास है,
इस घनी सी बस्ती मे,
अपने घर की तलाश है।

दीप जलाने वाले सौ,
फिर भी बुझती लौ सी आस है,
जाने पहचाने रिश्तों में,
बस जिन्दगी की तलाश है।

ज्जबातों से सूखे आँसुओं में,
डूबती अब आस है,
समुंदर के गीले आँसुओं से,
बुझने वाली ये प्यास है।

लाखों चेहरो हैं पहचाने से,
पर जाने कहां खोया है खुद को,
के आईने को भी अब,
अपने अक्स की तलाश है।

तू चुपके से सुन इस पल की धुन

सुबह की पुरवाई मे घुली तेरी महक,
मेरी आँखों के गीले कोरों से,
मखमली ख्वाबों को चुनकर,
शाम ढ़़ले तन्हाई के एहसासों कों तजकर,
तू चुपके से सुन, इस पल की धुन,
दो दिलों की धड़कनें, मैं और तुम।

चांदनी सम तुम, शांत बादल सम मैं,
तुम बिखरो मुझपर मृदु चांदनी सम,
छा जाऊँ मैं तुमपर विस्तृत आकाश बन,
तुम हो जाओ चंचल निर्मल नदी सी,
सागर सा विस्तृत पूर्ण हो जाऊँ मैं।

नीलाभवर्ण बादलों में छिपी इन बूँदों सम,
वो सुरमयी ख़्वाब हैं, जो देखे हैं हमने तुम संग
अब कणों नें फिर छेड़े है वही धुन, 
चहुँ ओर है शांत सा कोलाहल,
कोयल भी है चुप सुनने को फिर से वही धुन,
तू चुपके से सुन, इस पल की धुन,
दो दिलों की धड़कनें, मैं और तुम।