तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच नहीं पाते,
होठों से मंद मंद फूटे शब्दों के कंपन,
आँखों से निकली प्रकाश की किरण,
चाहें बंधन तोड़ युगों से मुझ तक आने को।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
दूरी तय करते युग बीते शब्दों को,
फासले ये तय कर नही पाते हैं ?
कंपन किरण से कब जीत पाते हैं?
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
प्रकाश की प्रस्फुटन, शब्दों की ध्वनि से तेज,
आंखों की चंचल भाषा, मृदु आवाज़ से चतुर,
शब्दों से पहले पहुँच, ये ठहर जाते हैं।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
आँखों की चपल भाषा, मैं मूरख क्या जानूं,
शब्द-स्पंदन से ही, मैं भावों को पहचानुं,
पर मर्यादाओं की सीमाओं में सिमटे शब्द,
उल्लंघित करने का दुस्साहश नही कर पाते हैं,
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
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