Saturday, 23 January 2016

मौन धरा की वेदना

चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरों की तेज हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
पश्चाताप किसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

विशाल हृदय धरा का,
खुद को निचोर सर्वस्व सागर को देता,
तपाकर खुद को रचना बादलों की करता,
चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

Friday, 22 January 2016

सांध्य झंझावात

झंझावात क्या डरा पाएंगे जीवन को?

सांध्य गगन में उड़ते नीड़ों को खग,
रवानियाँ करते झूमते हवाओं मे तब,
भूले रस्ता झंझा के झोंकों में पड़कर,
हठात् सोचते क्या  होगा आगे अब।

झंझावात क्या ले पाएंगे जीवन से?

पीड़ा पंखों की उठती चुभती दंश सी,
भेंट चढ गए मित्र-गण झंझावात की,
चिन्ता सताती नीर  व नन्हे चूजों की,
नन्ही जान अटक सी जाती खग की।

झंझावात कितना सताएंगे जीवन को?

सांध्य निष्ठुर कैसा जीवन का आँचल,
उपर गरजता प्रलय के काले बादल,
फुफकारता नाग सा सृष्टि का अंचल,
जीवन फिर भी रुकता नही प्रतिपल।

झंझावात क्या रोक पाएंगे जीवन को?

रूठा अक्श मेरा

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही रूठता?

अक्स पूछता मुझसे बता मैं कौन हूँ?
निर्दयी भूल गए जब तुम ही मुझको,
पूछेगा जग में भला अब मुझको कौन?

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही पूछता?

साथ दिया मैने तेरा पग-पग पर,
क्युँ रहता तू किसी और पर निर्भर,
तू ही बता कहाँ गई पहचान मेरी पर?

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही पूछता?

लोग मुझे क्युँ कहते हैं लावारिश?
तेरे ही कर्मों ने जब जना है मुझको वारिश,
निष्ठुर भूल गए मुझको, की ना मेरी परवरिश?

क्युँ अक्श मेरा आज मुझसे ही कहता?

जब जब तू रोया मैं भी था रोया,
तेरी सफलता की छाया मे बढ़ पाया,
पर तेरे गुरूर ने आज मुझको भी खोया।

मेरे अक्श का दामन आज मुझसे ही छूटता?

स्नेहिल जन्मदिन

बन गया जन्मदिन मेरा यह स्वप्न सा स्नेहिल,
स्नेह दिया माँ, भाईबन्धु,पत्नी, बच्चों ने मिल,
आशीष की भेंट मिली स्निगध छटा स्वप्निल,
वृष्टि शुभकामनाओं की हुई मुझको हासिल।

यूँ तो हर पल घट जाते हैं जीवन के कुछ क्षण,
इस लघु होते जीवन में जी गया मैं कुछ क्षण,
माता व पत्नी ने शीष नवाया ईश्वर के सम्मुख,
आस्था संगिनी की भाव जगाता सत्यवान सम।

मैं भाग्यवान कितना जन्मदिन मना पाता हूँ,
आशीष बड़ो से लेकर छोटों को प्यार देता हूँ,
नववस्त्र का उपहार मिलता मिष्ठान्न खाता हूँ,
जीवन चक्र मे जन्मदिन प्रेम का बिता पाता हूँ।

मधुपान


उन हसीन लम्हातों की खामोशियों मे,
आहट की कल्पना भी प्यारी है तुम्हारी,
रंग कई बिखर जाते हैं आँखों के सामने
डूब जाता है सारा आलंम गुजरिशों में।

दूर एक साया दिखता बस तुम्हारी तरह,
शायद सुन लिया है गीत मेरा तुमने भी,
पास आते हो तुम किसी मंजर की तरह,
गूंज उठते हैं संगीत के स्वर ख्यालों में।

याद बनकर जब कभी छाते हो दिल पर,
शहनाईयाँ सी बज उठती हैं विरानियों मे,
सैंकड़ों फूल खिल उठते मधुरस बरसाते,
झूम उठता हृदय का भँवर मधुर पान से। 

मेरा ही अक्श


झांकता हूँ बंद झरोखों के परदों से,
आ पहुँचा हूँ कहाँ जीवन पथ पर इतनी दूर?

धुंधली सी इक तस्वीर उभरती,
स्याह चादरों सी कुछ लिपटी दिखती,
जिग्याशावश पूछता हूँ मैं, कौन हो तुम?

कुछ क्षण वो मौन धारण कर गया,
कौतुहलवश आँखें फार उसे मैं देखता रह गया,
जिग्याशा बढ़ गई मेरी उस साए में।

संकोचवश फिर मौन तोड़ वो बोला.....!
कब से खड़ा हूँ मैं इस राह पर!
दुनियाँ ने भी ना पहचाना मुझको!
एक आस बस तुझसे बंधी थी पर!
तूमने भी ना पहचाना मुझको?

जिग्याशा और बढ़ गई थी मेरी,
मैंने फिर पूछा, बोलो तो कौन हो तुम?

रूंझी सी वाणी में वो बोला...आँखे खोल के देख,
बंद झरोखों के परदों को पूरी तरह खोल,
पहचान खुद को, अक्श हूँ मैं तुम्हारा ही, अब बोल?

जीवन के पथ पर साथ किसी का कौन दे पाता?
अक्श हूँ तेरा, साथ सदा मै तेरे ही रहता!
दर्द किसी को मुझसे न पहुँचे,
सपना किसी का मुझसे ना टूटे,
चुप इसीलिए मैं रह जाता हूँ,
अतीत के गर्भ में तुझे बार-बार ले चलता हूँ
अक्श हूँ तेरा! साथ सदा मै तेरे ही रहता हुूँ।

जब तेरा कोई सपना टूटा, टूटा हूँ मैं भी थोड़ा,
मेरी आँख भी बरसी है तड़पा हूँ मैं भी थोड़ा,
अक्श हूँ तेरा, साथ कभी तेरा मैंने ना छोड़ा।

हठात, हतप्रभ, विस्मित मैं देखता रह गया!!!!!

Thursday, 21 January 2016

मधुर ख्याल

एक साया सा दिखता,
तुम्हारी तरह,
शायद आ गए हो तुम,
 किसी मंजर की तरह,
बज उठे हैं,
संगीत स्वर ख्यालों में अब।
याद बनकर जब कभी,
छा जाते हो दिल की प्रस्तर पर,
शहनाईयाँ सी,
बज उठती हैं विरानियों मे तब,
सैंकड़ों फूल खिलकर,
मधुरस बरसाते,
झूम उठता तब हृदय भँवर,
 डूबकर मधुर पान में। 

सांझ मधुक्षण

सांझ मधुक्षण बिखेरता मधु के मधुकण,
क्रीडा करते रंगों संग धरा के कण कण,
लहरों पर चाँदी की किरणों सम ये क्षण।

बाँध रहा मन को सांझ का मधुर पाश,
अन्जाना सा मोह महसूस हो रहा पास,
हल्की सी धूंध मे परिदृश्य खो रहा साँस।

हर्ष विमूढ़ हो उठता मन कभी इस पल,
मै विस्मय सा हो जाता देख पीले बादल,
प्रकाशमय सांझ अंकित धरा के आँचल।

विषमता

सोचता हूँ कभी!

विशाल समुन्द्र का विस्तृत दामन,
कितना समृद्ध और साधन सम्पन्न,
अधिकता की सीमा से अधिक धन,
विस्तार की सीमा से ज्यादा विस्तृत,
फिर भी कितना अस्थिर इसका मन?

सोचता हूँ कभी!

विशाल समुन्द्र क्युँ रहता विचलित?
अनवरत गर्जते जल-राशि की तड़प,
विकराल होती हुई उठती ऊँची लहर,
हृदय के अन्दर समेटे अनेकों भँवर,
विषमता उद्वेलित कर देती मेरा मन।

सोचता हूँ कभी!

उस छोटी सी नदी की क्या है गलती?
दुर्गम पहाड़ों के शिखर पर यह पलती,
घने जंगल, कंकड़, पत्थरों से गुजरती,
सूखी बंजर धरती को सींच उर्वर करती,
फिर क्युँ ना हो विचलित इसका मन?

सोचता हूँ कभी!

विस्तृत दामन सागर क्या हो पाया परिपू्र्ण?
खुद की विचलन पर क्यूँ न रखता नियंत्रण?
सागर का विशाल हृदय फिर किस काम का?
फिर क्यों न हो उद्वेलित सीमित नदी का मन?
विषमता देख इनमें उद्वेलित होता मेरा मन!

Wednesday, 20 January 2016

हसीन लम्हात

उन हसीन लम्हातों की खामोशियों मे,
आहट की कल्पना भी प्यारी है तुम्हारी,
रंग कई बिखर जाते हैं आँखों के सामने
डूब जाता है सारा आलंम गुजरिशों में।

दूर एक साया दिखता बस तुम्हारी तरह,
शायद सुन लिया है गीत मेरा तुमने भी,
पास आते हो तुम किसी मंजर की तरह,
गूंज उठते हैं संगीत के स्वर ख्यालों में।

याद बनकर जब कभी छाते हो दिल पर,
शहनाईयाँ सी बज उठती हैं विरानियों मे,
सैंकड़ों फूल खिल उठते मधुरस बरसाते,
झूम उठता हृदय का भँवर मधुर पान से।