Monday, 14 November 2016

कुछ तो कहो

कुछ तो कहो मेरे अर्धांग.....

सिले से लब, भीगे से दो नैन,
चुप न रहो कहो मेरे अर्धांग,
लब हिलने दो कह दो वृतान्त,
कुछ बोलो........

सिंदूर का भरम, बिंदी में हम,
देह पत्र तुम, मैं हूँ कलम,
गम न सहो ऐ मेरे मृगान्त,
कुछ पिघलो.......

भौंहें तनी सी , नयन के तेवर,
कमर प्रत्यंचा सी, अनोखे जेवर,
मुझसे कहो कुछ मेरे सर्वांग,
कुछ दो लो........

कुछ तो कहो मेरे अर्धांग.....

कशिश

कुछ तो है कशिश बातों मे तेरी, जो खींच लाई है मुझे...

घूँघरुओं की मानिंद लगते हैं शब्द तेरे,
दूर मंदिर में जैसे कोई कर रहा हो स्वर वंदन,
सुर मधुर सा कोई गाने लगी हो कोयल,
वीणा के तार कहीं झंकृत हुए हों अचानक ऐसे,
कि जैसे छम से आ टपकी हों बारिश की बूँदें!

कुछ तो है कशिश बातों मे तेरी, जो खींच लाई है मुझे...

आत्माओं के संस्कार की प्रकट रूप है वाणी,
सरस्वती के वरदान का इक स्वरूप है वाणी,
वाणी में किसी के यूँ ही होता नहीं इतना मिठास,
कशिश किसी की शब्दों में आता नहीं चुपचाप,
यूँ ही कोई, किसी का बनता नहीं तलबगार।

कुछ तो है कशिश बातों मे तेरी, जो खींच लाई है मुझे...

Sunday, 13 November 2016

शायद

भूल जाना तुम, वो शिकवे-शिकायतों के पल....

शायद! इक भूल ही थी वो मेरी!
सोचता था कि मैं जानता हूँ खूब तुमको,
पर कुछ भी बाकी न अब कहने को,
न सुनने को ही कुछ अब रह गया है जब,
लौट आया हूँ मैं अपने घर को अब!

शायद! यूँ ही थी वो मुस्कराहटें!
खिल आई थी जो अचानक उन होंठो पे,
कुछ सदाएँ गूँजे थे यूँ ही कानों में,
याद करने को न शेष कुछ भी रह गया है जब,
क्या पता तुम कहाँ और मैं कहाँ हूँ अब!

शायद! वो एक सुंदर सपन हो मेरा!
जरा सा छू देने से, कांपती थी तुम्हारी काया  ,
एक स्पर्श से सिहरता था अस्तित्व मेरा,
स्थूल सा हो चुका है अंग-प्रत्यंग देह का जब,
जग चुका मैं उस मीठी नींद से अब!

शायद! गुम गई हों याददाश्त मेरी!
या फिर! शब्दों में मेरे न रह गई हो वो कशिश,
या दूर चलते हुए, विरानों में आ फसे हैं हम,
या विशाल जंगल, जहाँ धूप भी न आती हो अब,
शून्य की ओर मन ये देखता है अब!

शायद! छू लें कभी उस एहसास को हम!
पर भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....
याद रखना तुम, बस मिलन के वो दो पल,
जिसमें विदाई का शब्द हमने नहीं लिखे थे तब,
दफनाया है खुद को मैने वहीं पे अब!

भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....

Friday, 11 November 2016

अतीत

तट पे आज खड़ा ये जीवन,
ताकता उस तट को,
छोड़ आया अतीत वो जिस तट,
फिर ये नाव बही क्यूँ उस तट को।

कह रहा है अब अतीत मेरा,
मेरे वर्तमान से आकर,
हो न सका जो तेरा,
क्यूँ रह गया तू उसका ही होकर।

अतीत में तब खोया था तू ने,
खुद से ही खुद को,
हो न सका हासिल लेकिन,
कुछ भी तो जीवन-भर तुझको।

अब सामने खड़ा अतीत तेरा,
वर्तमान की राहों को घेरे,
कच्चे धागों से मन को ये फेरे,
क्या तोड़ पाएगा तू इस बंधन को?

Thursday, 10 November 2016

सिहरन

सिहर सिहर कर ....
आज अधरों से फूटी है दो बात,
चुप-चुप ज्युँ ....
गई हो रौशनी छिप छिप कर आई हो रात,
विवश हुए हम इतने बदले हैं ये कैसे हालात।

सिमट सिमट कर  ....
रह गई अब इस मन की अभिलाषा,
विलख-विलख ज्यूँ,
रोई हो बदली और आकाश हुआ हो प्यासा,
विवश हुए हम इतने छूट चुकी दामन से आशा।

बहक बहक कर  .....
क्षितिज पर छाई है भरियाई सी शाम,
सहम-सहम ज्यूँ,
खोये से है हम और नदी का तट हो निष्काम,
विवश हुए हम इतने भीगे-भीगे नैन हुए हैं नम।।

अतीत हूँ मैं

अतीत हूँ मैं बस इक तेरा, हूँ कोई वर्तमान नहीं...
तुमको याद रहूँ भी तो मैं कैसे,
मेरी चाहत का तुझको, है कोई गुमान नहीं,
झकझोरेंगी मेरी बातें तुम्हें कैसे,
बातें ही थी वो, आकर्षण का कोई सामान नहीं।

मेरी आँखों के मोती बन-बनकर टूटे हैं सभी,
सच कहता हूँ उन सपनों में था मुझको विश्वास कभी,
सजल नयन हुए थे तेरे, देखकर पागलपन मेरा,
अब हँसता हूँ मैं यह कहकर "लो टूट चुका बन्धन मेरा!"
अतीत के वो क्षण, अब मुझको हैं याद नहीं।

क्या जानो तुम कि एक विवशता से है प्रेरित...
जीवन सबका, जीवन मेरा और तेरा !
पर यह विवशता कब तक रौंदेगी जीवन को भी,
हो जाएंगे आँखों से ओझल जीवन के ये पृष्ठ सभी,
नव-यौवन की ये हलचल, हो जाएंगी खाक यहीं।

अपनाने में तुमको मैंने अपनेपन की परवाह न की,
पर क्रंदन सुनकर भी मेरी, तूने इक आह न की,
आह मेरे अब उभरे हैं बनकर गीत,
पर दुनिया मेरे गीतों में अपनापन पाए भी तो क्या?
बोल मेरे उन गीतों के, रह जाने हैं बस यहीं।

अतीत हूँ मैं बस इक तेरा, हूँ कोई वर्तमान नहीं.....

एक और इंतजार

रहा इस जनम भी, एक और अंतहीन इंतजार....!
बस इंतजार, इंतजार और सदियों का अनथक इंतजार!

इंतजार करते ही रहे हम सदियों तुम्हारा,
कब जाने धमनियों के रक्त सूख गए,
पलकें जो खुली थी अंतिम साँसों तक मेरी,
जाने कब अधखुले ही मूँद गए,
इंतहा इंतजार की है ये अब,
तुमसे मिलने को पाया हमने ये जन्म दोबारा...

रहा इस जनम भी लेकिन एक और अंतहीन इंतजार...!

गिन न सके अनंत इंतजार की घड़ियों को हम,
चुन न सके वो चंद खुशियाँ उन राहों से हम,
दामन में आई मेरी बस इक तन्हाई,
और मिला मुझको मरुभूमि सा अंतहीन इंतजार,
और कुछ युगों का बेजार सा प्यार,
हां, बस ..  कुछ युगों का एक और इंतजार.....।

किया इस जनम भी हमनें एक और अंतहीन इंतजार..!

ये युग तो ऐसे ही बस पल में बीत जाएंगे,
तेरी यादों में हम युगों तक ऐसे ही रीत जाएंगे,
भूला न सकोगे जन्मों तुम मुझको भी,
इंतजार तुझको भी बस मेरी ही,
मिटा सकोगे ना तुम भी ये रेखाएँ हाथों की
मृत्यु जब होगी सामने आएंगे याद तुम्हें बस हम ही......

इस जनम तुमको भी है एक और अंतहीन इंतजार....!

शायद तब होगी अंत मेरी ये इंतजार,
जब होगी अपनी इक अंतहीन सी मुलाकात,
व्योम मे उन बादलों के ही पीछे कहीं,
तब साधना होगी मेरी सार्थक,
पूजा होगी मेरी तब सफल,
युगों युगों के इंतजार का जब मिल जाएगा प्रतिफल.....

पर, रहा इस जनम भी, एक और अंतहीन इंतजार....!
बस इंतजार, इंतजार और सदियों का अनथक इंतजार!

Monday, 7 November 2016

अतिरंजित पल

हैं कितने सम्मोहक ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

कतारें दीप की जल रही हर राह हर पथ पर,
जन-सैलाब उमर आया है हर नदी हर घाट पर,
हो रहा आलोकित, अंधियारे मन का प्रस्तर।

हैं कितने मनभावन ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

मंद-मंद पुरवैयों संग घुमर रहा नभ पर बादल,
बिखेरती किरणें सिंदूरी वो सूरज अब रहा निकल,
हो रहा सुशोभित, लाल-पीत वर्णों से मुखमंडल।

हैं कितने आकर्षक ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

प्रकाशित है नभमंडल, प्राणमयी हुए हैं मुखरे,
कली-कली मुस्काई है, रंग फूलों के भी हैं निखरे,
हो रहा आह्लादित, विहँस रहे हैं हर चेहरे।

हैं कितने मनमोहक ये, उनींदे से अतिरंजित पल......

Friday, 4 November 2016

चाहो तो

चाहो तो पढ़ लेना तुम वो पाती,
हवाओं के कागज पर लिखकर हमनें जो भेजी,
ना कोई अक्षर इनमें, ना हैं स्याही के रंग,
बस है इक यादों की खुश्बू चंचल पुरवाई के संग।

चाहो तो रख लेना तुम वो यादें,
घटाओं की चुनरी में कलियों संग हमने जो बाँधे,
ना कोई पहरे इन पे, ना शिकवे ना रंज,
बस है इक ठंढी सी छाँव बादल की परछाई के संग।

चाहो तो सुन लेना तुम वो गीत,
सागर की लहरों ने जो छेड़ी है सरगम की रीत,
ना हैं वीणा के सुर, ना पायल की रुनझुन,
बस है इक अधूरा सा संगीत सागर की तन्हाई के संग।

चाहो तो पढ़ लेना तुम वो संदेशे,
किरणों संग नभ पर लिखकर हैं हमने जो भेजे,
ना है शब्द कोई, ना कोई भी पूर्णविराम,
बस है इक रंग गुलनारी सी थोड़ी श्यामल रंगों के संग।

Thursday, 3 November 2016

उनकी आहट

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

फैली है पहचानी सी खुश्बू फिजाओं में पल पल,
गूंज रही इक आवाज दिशाओं में हर पल,
तोड़ रही ये खामोशी, विरान दिल के प्रतिपल,
रह रहकर इन हवाओं में,ये कैसी है हलचल.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

क्यूँ आँखों से अदृश्य अब तक है वो प्रतिकृति,
क्या आहट है यह किसी मूक आकृति की,
गुंजित हैं फिर मेरा मन धुन पर किस सरगम की,
मन से निकल रही है क्यूँ इक आह सी....!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

झूमती इन पत्तियों में ये सरसराहट है फिर कैसी,
छुअन सी इक सिहरन बदन में है ये कैसी,
जेहन में हर पल गूंजती फिर ये आवाज है कैसी,
एहसास नई सी जागी दिल मे आज है कैसी.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?