सिहर सिहर कर ....
आज अधरों से फूटी है दो बात,
चुप-चुप ज्युँ ....
गई हो रौशनी छिप छिप कर आई हो रात,
विवश हुए हम इतने बदले हैं ये कैसे हालात।
सिमट सिमट कर ....
रह गई अब इस मन की अभिलाषा,
विलख-विलख ज्यूँ,
रोई हो बदली और आकाश हुआ हो प्यासा,
विवश हुए हम इतने छूट चुकी दामन से आशा।
बहक बहक कर .....
क्षितिज पर छाई है भरियाई सी शाम,
सहम-सहम ज्यूँ,
खोये से है हम और नदी का तट हो निष्काम,
विवश हुए हम इतने भीगे-भीगे नैन हुए हैं नम।।
आज अधरों से फूटी है दो बात,
चुप-चुप ज्युँ ....
गई हो रौशनी छिप छिप कर आई हो रात,
विवश हुए हम इतने बदले हैं ये कैसे हालात।
सिमट सिमट कर ....
रह गई अब इस मन की अभिलाषा,
विलख-विलख ज्यूँ,
रोई हो बदली और आकाश हुआ हो प्यासा,
विवश हुए हम इतने छूट चुकी दामन से आशा।
बहक बहक कर .....
क्षितिज पर छाई है भरियाई सी शाम,
सहम-सहम ज्यूँ,
खोये से है हम और नदी का तट हो निष्काम,
विवश हुए हम इतने भीगे-भीगे नैन हुए हैं नम।।
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