Saturday, 19 November 2016

हुई है शाम

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

लबों से बुदबुदाओ, तराने प्रणय के गाओ,
संध्या किरण की लहर पर, तुम झिलमिलाओ,
फिर न आएगी लौटकर, ये शाम सुरमई,
तुम बिन ये गा न पाएगी, प्रणय के गीत कोई,
गीत फिर से प्रणय के, तुम वही दोहराओ,

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

ऐ मन के मीत मेरे, तुम पंछियों सी चहचहाओ,
सिमटती कली सी, तुम लजाती दुल्हन बन आओ,
फिर लौट कर न आएगी, ये शाम चम्पई,
तुम बिन कट न पाएगी, ये रुत, ये प्रहर, ये घड़ी,
तराने मिलन के लिखकर, तुम राग में सुनाओ,

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

चाँद तारों से मिलने, तुम भी फलक पे आओ,
रूठो ना मुझसे यूँ तुम, दिल की पनाहों में आओ,
झूमकर फिर ना चलेगी, लौटी जो पुरवाई,
तुम बिन न खिल सकेगा, फलक पे चाँद कोई,
प्रणय के तार छेड़कर, अनुराग फिर जगाओ,

हुई है शाम, प्रिये अब तुम गुनगुनाओ........!

Thursday, 17 November 2016

तराना प्रणय का

सोचा था मैंने, गाऊँगा मैं भी कभी तराना प्रणय का....

गाएँ कैसे इसे हम, अब तुम ही हमें ये बताना,
ढ़ल रही है शाम, तुम सुरमई इसे बनाना,
अभी सहने दो मुझको, असह्य पीड़ा प्रणय का,
निकलेगी आह जब, इसे धुन अपनी बनाना।

सोचा था मैंने, गाऊँगा मैं भी कभी तराना प्रणय का....

अभी गाऊँ भी कैसै, मैं ये तराना प्रणय का,
आह मेरी अब तक, सुरीली हुई है कहाँ,
बढ़ने दो वेदना जरा, फूटेगा ये तब बन के तराना,
तार टूटेंगे मन के, बज उठेगा तराना प्रणय का।

सोचा था मैंने, गाऊँगा मैं भी कभी तराना प्रणय का....

कभी फूटे थे मन में, वो तराने प्रणय के,
लिखी है जो दिल पे, आकर रुकी थी ये लबों पे,
एहसास थी वो इक शबनमी, पिघलती हुई सी,
कह भी पाऊँ न मैं, दिल की सब बातें किसी से।

सोचा था मैंने, गाऊँगा मैं भी कभी तराना प्रणय का....

छेड़ना ना तुम कभी, फिर वो तराना प्रणय का,
अभी मैं लिख रहा हूँ, इक फसाना हृदय का,
फफक रहा है हृदय अभी, कह न पाएगा आपबीती,
नगमों में ये ढ़लेंगे जब, सुनने को तुम भी आना।

सोचा था मैंने, गाऊँगा मैं भी कभी तराना प्रणय का....

Monday, 14 November 2016

चुपचाप

हाँ, बस चुपचाप ....

चुपचाप ....जब आँखों की भाषा में कोई,
गिरह मन की खोलता है चुपचाप,

चुपचाप .... जब साँसों की लय पर कोई,
हृदय की धड़कन गिनता है चुपचाप,

चुपचाप ....जब कदमों की आहट पर कोई,
बेताबी दिल की सुन लेता है चुपचाप,

चुपचाप ....अंतःस्थ प्यार का बादल यूँ ही,
क्षितिज से उमड़ पड़ता है चुपचाप,

चुपचाप ....जब दिल की आँखों से यूँ ही,
कुछ शर्माकर वो देखते है चुपचाप,

चुपचाप .... ये मेरा छोटा सा घर  यूँ ही,
संसार मेरा बन जाता है चुपचाप।

हाँ, बस चुपचाप ....

आ पास मेरे

आ पास मेरे ...पल दो पल, आ पास मेरे।

फिरा लूँ ऊँगली,
तेरे गुलाबी आँखों पर,
लाल लाल उन होठों पर,
लहराते इन गेसुओं पर,
चुरा लूँ झील से तेरे,
नैनों का काजल,
आ पास मेरे ...पल दो पल, आ पास मेरे।

गुलाब के फूलों सा,
महका तेरा बदन,
झूम उठी प्रकृति सुन,
छम-छम की सरगम,
बजा लूँ होकर विह्वल
रूनझुन तेरी पायल,
आ पास मेरे ...पल दो पल, आ पास मेरे।

सूरज संग किरण,
बादल संग बिजली,
हम जी रहे जैसे,
फूलों संग तितली,
तस्वीर तेरी आँखों में,
रहती हर पल,
आ पास मेरे ...पल दो पल, आ पास मेरे।

कुछ तो कहो

कुछ तो कहो मेरे अर्धांग.....

सिले से लब, भीगे से दो नैन,
चुप न रहो कहो मेरे अर्धांग,
लब हिलने दो कह दो वृतान्त,
कुछ बोलो........

सिंदूर का भरम, बिंदी में हम,
देह पत्र तुम, मैं हूँ कलम,
गम न सहो ऐ मेरे मृगान्त,
कुछ पिघलो.......

भौंहें तनी सी , नयन के तेवर,
कमर प्रत्यंचा सी, अनोखे जेवर,
मुझसे कहो कुछ मेरे सर्वांग,
कुछ दो लो........

कुछ तो कहो मेरे अर्धांग.....

कशिश

कुछ तो है कशिश बातों मे तेरी, जो खींच लाई है मुझे...

घूँघरुओं की मानिंद लगते हैं शब्द तेरे,
दूर मंदिर में जैसे कोई कर रहा हो स्वर वंदन,
सुर मधुर सा कोई गाने लगी हो कोयल,
वीणा के तार कहीं झंकृत हुए हों अचानक ऐसे,
कि जैसे छम से आ टपकी हों बारिश की बूँदें!

कुछ तो है कशिश बातों मे तेरी, जो खींच लाई है मुझे...

आत्माओं के संस्कार की प्रकट रूप है वाणी,
सरस्वती के वरदान का इक स्वरूप है वाणी,
वाणी में किसी के यूँ ही होता नहीं इतना मिठास,
कशिश किसी की शब्दों में आता नहीं चुपचाप,
यूँ ही कोई, किसी का बनता नहीं तलबगार।

कुछ तो है कशिश बातों मे तेरी, जो खींच लाई है मुझे...

Sunday, 13 November 2016

शायद

भूल जाना तुम, वो शिकवे-शिकायतों के पल....

शायद! इक भूल ही थी वो मेरी!
सोचता था कि मैं जानता हूँ खूब तुमको,
पर कुछ भी बाकी न अब कहने को,
न सुनने को ही कुछ अब रह गया है जब,
लौट आया हूँ मैं अपने घर को अब!

शायद! यूँ ही थी वो मुस्कराहटें!
खिल आई थी जो अचानक उन होंठो पे,
कुछ सदाएँ गूँजे थे यूँ ही कानों में,
याद करने को न शेष कुछ भी रह गया है जब,
क्या पता तुम कहाँ और मैं कहाँ हूँ अब!

शायद! वो एक सुंदर सपन हो मेरा!
जरा सा छू देने से, कांपती थी तुम्हारी काया  ,
एक स्पर्श से सिहरता था अस्तित्व मेरा,
स्थूल सा हो चुका है अंग-प्रत्यंग देह का जब,
जग चुका मैं उस मीठी नींद से अब!

शायद! गुम गई हों याददाश्त मेरी!
या फिर! शब्दों में मेरे न रह गई हो वो कशिश,
या दूर चलते हुए, विरानों में आ फसे हैं हम,
या विशाल जंगल, जहाँ धूप भी न आती हो अब,
शून्य की ओर मन ये देखता है अब!

शायद! छू लें कभी उस एहसास को हम!
पर भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....
याद रखना तुम, बस मिलन के वो दो पल,
जिसमें विदाई का शब्द हमने नहीं लिखे थे तब,
दफनाया है खुद को मैने वहीं पे अब!

भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....

Friday, 11 November 2016

अतीत

तट पे आज खड़ा ये जीवन,
ताकता उस तट को,
छोड़ आया अतीत वो जिस तट,
फिर ये नाव बही क्यूँ उस तट को।

कह रहा है अब अतीत मेरा,
मेरे वर्तमान से आकर,
हो न सका जो तेरा,
क्यूँ रह गया तू उसका ही होकर।

अतीत में तब खोया था तू ने,
खुद से ही खुद को,
हो न सका हासिल लेकिन,
कुछ भी तो जीवन-भर तुझको।

अब सामने खड़ा अतीत तेरा,
वर्तमान की राहों को घेरे,
कच्चे धागों से मन को ये फेरे,
क्या तोड़ पाएगा तू इस बंधन को?

Thursday, 10 November 2016

सिहरन

सिहर सिहर कर ....
आज अधरों से फूटी है दो बात,
चुप-चुप ज्युँ ....
गई हो रौशनी छिप छिप कर आई हो रात,
विवश हुए हम इतने बदले हैं ये कैसे हालात।

सिमट सिमट कर  ....
रह गई अब इस मन की अभिलाषा,
विलख-विलख ज्यूँ,
रोई हो बदली और आकाश हुआ हो प्यासा,
विवश हुए हम इतने छूट चुकी दामन से आशा।

बहक बहक कर  .....
क्षितिज पर छाई है भरियाई सी शाम,
सहम-सहम ज्यूँ,
खोये से है हम और नदी का तट हो निष्काम,
विवश हुए हम इतने भीगे-भीगे नैन हुए हैं नम।।

अतीत हूँ मैं

अतीत हूँ मैं बस इक तेरा, हूँ कोई वर्तमान नहीं...
तुमको याद रहूँ भी तो मैं कैसे,
मेरी चाहत का तुझको, है कोई गुमान नहीं,
झकझोरेंगी मेरी बातें तुम्हें कैसे,
बातें ही थी वो, आकर्षण का कोई सामान नहीं।

मेरी आँखों के मोती बन-बनकर टूटे हैं सभी,
सच कहता हूँ उन सपनों में था मुझको विश्वास कभी,
सजल नयन हुए थे तेरे, देखकर पागलपन मेरा,
अब हँसता हूँ मैं यह कहकर "लो टूट चुका बन्धन मेरा!"
अतीत के वो क्षण, अब मुझको हैं याद नहीं।

क्या जानो तुम कि एक विवशता से है प्रेरित...
जीवन सबका, जीवन मेरा और तेरा !
पर यह विवशता कब तक रौंदेगी जीवन को भी,
हो जाएंगे आँखों से ओझल जीवन के ये पृष्ठ सभी,
नव-यौवन की ये हलचल, हो जाएंगी खाक यहीं।

अपनाने में तुमको मैंने अपनेपन की परवाह न की,
पर क्रंदन सुनकर भी मेरी, तूने इक आह न की,
आह मेरे अब उभरे हैं बनकर गीत,
पर दुनिया मेरे गीतों में अपनापन पाए भी तो क्या?
बोल मेरे उन गीतों के, रह जाने हैं बस यहीं।

अतीत हूँ मैं बस इक तेरा, हूँ कोई वर्तमान नहीं.....