Wednesday, 13 December 2017

अकेले प्रेम की कोशिश

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें बार-बार करता हूँ कि,
रत्ती भर भी छू सकूँ अपने मन के आवेग को,
जाल बुन सकूँ अनदेखे सपनों का,
चून लूँ, मन में प्रस्फुटित होते सारे कमल,
अर्थ दे पाऊँ अनियंत्रित लम्हों को,
न हो इंतजार किसी का, न हो हदें हसरतों की....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनथक करता हूँ कि,
रंग कोई दूसरा ही भर दूँ पीले अमलतास में,
वो लाल गुलमोहर हो मेरे अंकपाश में,
भीनी खुश्बुएँ इनकी हवाओं में लिख दे प्रेम,
सुबासित हों जाएँ ये हवाएँ प्रेम से,
न हो बेजार ये रंग, न हो खलिश खुश्बुओं की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनवरत करता हूँ कि,
कंटक-विहीन खिल जाएँ गुलाब की डाली,
बेली चम्पा के हों ऊंचे से घनेरे वृक्ष,
बिन मौसम खिलकर मदमाए इनकी डाली,
इक इक शाख लहरा कर गाएँ प्रेम,
न हो कोई भी बाधा, न हो कोई सीमा प्रेम की.....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें निरंतर करता हूँ कि,
रोक लूँ हर क्षण बढ़ते मन के विषाद को,
दफन कर दूँ निरर्थक से सवाल को,
स्नेहिल स्पर्श दे निहार लूँ अपने अक्श को,
सुबह की धूप का न हो कोई अंत,
न हो धूमिल सी कोई शाम, न रात हो विरह की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें नित-दिन करता हूँ कि,
चेहरे पर छूती रहे सुबह की वो ठंढ़ी धूप,
मूँद लू नैन, भर लूँ आँखो मे वो रूप,
आसमान से छन-छन कर आती रहे सदाएँ,
बूँद-बूँद तन को सराबोर कर जाएँ,
न हो तपती सी किरण, न ही कमी हो छाँव की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

Saturday, 9 December 2017

संगतराश

जिंदादिल हूँ, कारीगर हूँ, हूँ मैं इक संगतराश...
तराशता हूँ शब्दों की छेनी से दिल,
बातों की वेणी में उलझाता हूं ये महफिल,
कर लेना गौर, न करना यूँ आनाकानी,
उड़ाना ना तुम यूँ मेरा उपहास,
संगतराश हूँ अलबेला.....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
प्रेम की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

करता हूँ कुछ मनमानी, कुछ थोड़ा सा हास... 
गढ़ जाता हूँ बिंदी उन सूने माथों पे,
सजाता हूँ लरजते से होठों पे कोई तिल,
शरमाता हूँ, यूँ हीं करके कोई नादानी,
ना करना तुम यूँ मेरा परिहास,
मैं संगतराश हूँ अकेला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
हास की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

तन्हाई में ये मेरा दिल, संजोता है सपने खास....
कल्पना आँखों में, उड़ते रंग गुलाल,
साकार सी मूरत, मन में उभरता मलाल,
वही शक्ल, वही सूरत जानी पहचानी,
यूँ ही फिर उड़ाती मेरा उपहास,
मैं संगतराश हूँ मतवाला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
नैनों की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

Friday, 8 December 2017

उपांतसाक्षी

न जाने क्यूँ.....

जाने....
कितने ही पलों का...
उपांतसाक्षी हूँ मैं,
बस सिर्फ....
तुम ही तुम
रहे हो हर पल में,
परिदिग्ध हूँ मैं हर उस पल से,
चाहूँ भी तो मैं ....
खुद को...
परित्यक्त नहीं कर सकता,
बीते उस पल से।

उपांतसाक्षी हूँ मैं....
जाने....
कितने ही दस्तावेजों का...
उकेरे हैं जिनपर...
अनमने से एकाकी पलों के,
कितने ही अभिलेख.... 
बिखेरे हैं मन के 
अनगढ़े से आलेख,
परिहृत नही मैं
पल भर भी...
बीते उस पल से।

आच्छादित है...
ये पल घन बनकर मुझ पर,
आवृत है....
ये मेरे मन पर,
परिहित हूँ हर पल,
जीवन के उपांत तक,
दस्तावेजों के हाशिये पर...
उपांतसाक्षी बनकर,
परिदिग्ध हूँ,
परिहृत नही हूँ मै,
पल भर भी...
बीते उस पल से।

न जाने क्यूँ.....

Thursday, 7 December 2017

व्यर्थ का अर्थ

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

लुप्त होते रहे एक-एककर शब्द सारे,
यूँ पन्नों से विलीन हुए, वो जीने के मेरे सहारे,
शायद कमजोर हुई थी ये मेरी नजर,
या शायद, शब्द ही कहीं रहे थे मुझसे मुकर....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

अर्थ शब्दों के, समझ से परे थे सारे,
व्यर्थ थे प्रयत्न, विलुप्त थे शब्दों के वो नजारे,
शायद वक्त ने की थी ये सरगोशी,
लुप्त हुई थी ये हँसी, फैली हुई थी खामोशी....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

ढूंढने चला हूँ मैं, अब वो ही शब्द सारे,
वक्त की सरगोशियों में, जो कर गए थे किनारे,
शायद सुन जाएंगे वो मेरी अनकही,
विलुप्त से वो शब्द, मेरे मन की ही थी कही...

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

क्या व्यर्थ ही जाएंगे, मेरे वो प्रयास सारे?
अर्थपूर्ण से वो शब्द, क्या थे सरगोशियों के मारे?
शायद पन्नों में कहीं छुपे थे वो शब्द,
करके कानाफूसी, मुझे कर गए थे वो निःशब्द....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

Sunday, 3 December 2017

परिवेश

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ उड़ते हों, फिजाओं में भ्रमर,
उर में उपज आते हों, भाव उमड़कर,
बह जाते हों, आँखो से पिघलकर,
रोता हो मन, औरों के दु:ख में टूटकर.....
सुखद हो हवाएँ, सहज संवेदनशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ खुलते हों, प्रगति के अवसर,
मन में उपजते हो जहाँ, एक ही स्वर,
कूक जाते हों, कोयल के आस्वर,
गाता हो मन, औरों के सुख में रहकर......
प्रखर हो दिशाएँ, प्रबुद्ध प्रगतिशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ बहती हों, विचार गंगा बनकर,
विविध विचारधाराएं, चलती हों मिलकर,
रह जाते हों, हृदय हिचकोले लेकर,
खोता हो मन, अथाह सिन्धु में डूबकर.....
नौ-रस हों धाराएँ, खुला उन्नतशील परिवेश.....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

स्मरण

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग किसी सिक्त क्षण में,
न ही, तुम्हारे रिक्त मन में,
न ही, तुम्हारे उजाड़ से सूनेपन में,
न ही, तुम्हारे व्यस्त जीवन में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे तन-बदन में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बदन से आती हवाओं में,
न ही, तुम्हारी सदाओं में,
न ही, तुम्हारी जुल्फ सी घटाओं में,
न ही, तुम्हारी मोहक अदाओं में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी वफाओं में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग अगन के सात फेरों में, 
न ही, तुम्हारे मन के डेरों में,
न ही, तुम्हारे जीवन के थपेड़ों में,
न ही, तुम्हारे गम के अंधेरों में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे उम्र के घेरों में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे सुप्त विलुप्त भावना में, 
न ही, तुम्हारे कर कल्पना में,
न ही, तुम्हारे मन की आराधना में,
न ही, तुम्हारे किसी प्रार्थना में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे प्रस्तावना में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बीतती किसी प्रतीक्षा में, 
न ही, तुम्हारी डूबती इक्षा में,
न ही, तुम्हारी परिधि की कक्षा में,
न ही, तुम्हारी समीक्षा में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी अग्निवीक्षा में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

Tuesday, 28 November 2017

मैं, बस मैं नहीं

मैं, बस इक मैं ही नहीं.....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रव हूँ, इक धुन हूँ,
हृदय हूँ, आलिंगन हूँ, इक स्पंदन हूँ,
गीत हूँ, गीतों का सरगम हूँ
गूंजता हूँ हवाओं में,
संगीत बन यादों में बस जाता हूँ,
गुनगुनाता हूँ मन में, यूँ मन को तड़पाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं........
इक दिल हूँ, इक धड़कन हूँ,
भावुक हूँ कुछ, थोड़ा बह जाता हूँ,
बंधकर पीड़ा में रह जाता हूँ,
खो जाता हूँ खुद में,
औरों के गम में आहत हो जाता हूँ,
विलखता हूँ मन में, एकान्त जब होता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रोश हूँ, इक आक्रोश हूँ,
गर्म खून हूँ, जुल्म से उबल जाता हूँ,
चुभती बात कहाँ सह पाता हूँ,
विरुद्ध हूँ मैं दमन के,
खुली चुनौती देकर लड़ जाता हूँ,
कलपता हूँ मन में, प्रभावित मैं होता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक राह हूँ, इक प्रवाह हूँ,
कभी रुकता हूँ, कभी चल पड़ता हूँ,
जूझकर रोड़ों से गिर पड़ता हूँ,
समाहित हूँ मैं खुद में,
यूँ राह प्रशस्त कर बढ़ जाता हूँ,
छलकता हूँ मन में, यूँ बस संभल जाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक जीव हूँ, इक जीवन हूँ, 
कभी सही हूँ, तो कभी गलत भी हूँ,
खबर नहीं है की सत्यकाम हूँ,
सत्यापित हूँ मैं खुद में,
बस जीवन को जीता जाता हूँ,
इठलाता हूँ मन में, यूँ खुद को बहलाता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

Sunday, 26 November 2017

24 बरस

दो युग बीत चुके, कुछ बीत चुके हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, बीत चुके है वो दिन,
यूँ जैसे झपकी हों ये पलकें,
मूँद गई हों ये आँखे, कुछ क्षण को,
उभरी हों, कुछ सुलझी अनसुलझी तस्वीरें,
वो सपने, है बेहद ही रंगीन!
फिर सपने वही, वापस ले आया ये मौसम....

कितनी ऋतुएँ, कितने ही मौसम बदले, 
भीगे पलकों के सावन बदले,
कब आई पतझड़, जाने कब गई,
अपलक नैनों में, इक तेरी है तस्वीर वही,
वो सादगी, है बेहद ही रंगीन!
फिर फागुन वही, वापस ले आया ये मौसम....

बाँकी है ये जीवन, अब कुछ पलक्षिण,
थोड़ी सी बीत चुकी हैं साँसें, 
एहसास रीत चुके हैं साँसों में कई,
बची साँसों में, है बस इक एहसास वही,
वो एहसास, है बेहद ही रंगीन!
फिर बसंत वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, कुछ बीते है हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

Saturday, 25 November 2017

अनन्त प्रणयिनी

कलकल सी वो निर्झरणी,
चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी,
दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

छमछम सी वो नृत्यकला,
चिर यौवन, चिर नवीन कला,
मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

धवल सी वो चित्रकला,
नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला,
अनन्त काल से, मन को रंग रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

निर्बाध सी वो जलधारा,
चिर पावन, नित चित हारा,
प्रणय की तृष्णा, तृप्त कर रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

प्रणय काल सीमा से परे,
हो प्रेयसी जन्म जन्मान्तर से,
निर्बोध कल्पना में निर्बाध बहती,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

अतृप्त तृष्णा अजन्मी सी,
तुम में ही समाहित है ये कही,
तृप्ति की इक कलकल निर्झरणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

(शादी की 24वीं वर्षगाँठ पर पत्नी को सप्रेम समर्पित) 

Thursday, 23 November 2017

अरुचिकर कथा

कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे 
या फिर रस की बरसात करे, 
दिल के जज्बात 
लम्हातों मे आकर कोई भरे, 
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में 
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!