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Tuesday, 14 November 2023

मध्य कहीं


मध्य कहीं, हर बातों में ......

ये किसके चर्चे, कर उठता है मन,
ले कर इक, अल्हरपन!
महसूस कराता, बिन मौसम इक सावन,
मध्य कहीं....
ठहराव लिए, जज्बातों में!
 
अब तो, बह आती इक खुश्बू सी,
छा उठता, इक जादू सा,
नज़रें टिक जाती, उस विस्तृत नभ पर,
मध्य कहीं....
इक इंतजार लिए, रातों में!

खोए वो पल, सपनों सी रातों में,
आए ही कब, हाथों में,
अल्हरपन में, बस उन्हीं पलों के चर्चे,
मध्य कहीं....
करता ये मन, हर बातों में!

शायद, ढूंढे, मन अपना मनचाहा,
अंजाना सा, इक साया,
डूबते-उपलाते, निरर्थक बहते पल के,
मध्य कहीं....
अर्थ कोई, बहकी रातों में!

मध्य कहीं, हर बातों में ......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 25 January 2018

उम्र

ऐ उम्र, जरा ठहर!  ऐसी भी क्या है जल्दी!

अब तक बीता ये जीवन व्यर्थ ही,
अर्थ जीवन का मिला नहीं,
कुछ अर्थपूर्ण करना है अभी-अभी,
ठहर ना, तू बीत रही क्यूँ जल्दी-जल्दी? 

अभी खुल कर हमने जिया नहीं,
मन का कुछ भी  किया नहीं,
आई थी तू भी तो बस अभी-अभी,
फिर जाने की, क्यूँ ऐसी भी है जल्दी?

पथ कंटक वाली ही सभी मिली,
फूलों सी राहों पर चला नही,
पथ फूलों की दिखी है अभी-अभी,
यहीं रुक जा, जाने की क्या है जल्दी?

जितनी भी पी, वो थी गरल भरी,
अधरों से ये अमृत विरल रही,
चाहत पीने की जागी अभी-अभी,
जरा ठहर, जाने की ऐसी क्या जल्दी?

रिश्तों की कितनी गाठें खुली नहीं,
मन की गाठें भी यूँ रही बंधी,
गांठें चाहत की खुली अभी-अभी,
फिर जाने की, ऐसी भी क्या है जल्दी?

ऐ उम्र, तूने उड़ान ये कैसी भरी?
पल में ही सदियाँ ये गुजर गई,
ख्वाहिश जीनै की थी अभी-अभी,
फिर क्यूँ, तुझे जाने की ऐसी है जल्दी?

कभी हाथों में तो तू आया ही नहीं,
संग चला पर साया भी नहीं,
स्पर्श भर कर गया तू अभी-अभी,
तू बैठ जरा, यूँ बीत न तू जल्दी-जल्दी!

ऐ उम्र, जरा ठहर!  ऐसी भी क्या है जल्दी!

Thursday, 7 December 2017

व्यर्थ का अर्थ

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

लुप्त होते रहे एक-एककर शब्द सारे,
यूँ पन्नों से विलीन हुए, वो जीने के मेरे सहारे,
शायद कमजोर हुई थी ये मेरी नजर,
या शायद, शब्द ही कहीं रहे थे मुझसे मुकर....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

अर्थ शब्दों के, समझ से परे थे सारे,
व्यर्थ थे प्रयत्न, विलुप्त थे शब्दों के वो नजारे,
शायद वक्त ने की थी ये सरगोशी,
लुप्त हुई थी ये हँसी, फैली हुई थी खामोशी....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

ढूंढने चला हूँ मैं, अब वो ही शब्द सारे,
वक्त की सरगोशियों में, जो कर गए थे किनारे,
शायद सुन जाएंगे वो मेरी अनकही,
विलुप्त से वो शब्द, मेरे मन की ही थी कही...

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

क्या व्यर्थ ही जाएंगे, मेरे वो प्रयास सारे?
अर्थपूर्ण से वो शब्द, क्या थे सरगोशियों के मारे?
शायद पन्नों में कहीं छुपे थे वो शब्द,
करके कानाफूसी, मुझे कर गए थे वो निःशब्द....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

Monday, 11 April 2016

अर्थ

इंतजार.....!

कैसा इन्तजार?
अर्थहीन हैं ....
इंतजार की बातें सभी!

हर शख्स....!

तन्हा यहाँ,
अब किसी को
किसी का इंतजार नहींं!

हर लम्हा ....!

जुदा है यहाँ ....
दूसरे लम्हे से.........
लम्हा जीता खुद में ही!

पल......!

आने वाला पल...
किसी का
तलबगार नहीं!

अर्थ....!

ढू़ढ़ता है हर पल,
खुद से खुद मेंं....
बस अपने आप में ही!