लुप्त होते रहे एक-एककर शब्द सारे,
यूँ पन्नों से विलीन हुए, वो जीने के मेरे सहारे,
शायद कमजोर हुई थी ये मेरी नजर,
या शायद, शब्द ही कहीं रहे थे मुझसे मुकर....
शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?
अर्थ शब्दों के, समझ से परे थे सारे,
व्यर्थ थे प्रयत्न, विलुप्त थे शब्दों के वो नजारे,
शायद वक्त ने की थी ये सरगोशी,
लुप्त हुई थी ये हँसी, फैली हुई थी खामोशी....
शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?
ढूंढने चला हूँ मैं, अब वो ही शब्द सारे,
वक्त की सरगोशियों में, जो कर गए थे किनारे,
शायद सुन जाएंगे वो मेरी अनकही,
विलुप्त से वो शब्द, मेरे मन की ही थी कही...
शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?
क्या व्यर्थ ही जाएंगे, मेरे वो प्रयास सारे?
अर्थपूर्ण से वो शब्द, क्या थे सरगोशियों के मारे?
शायद पन्नों में कहीं छुपे थे वो शब्द,
करके कानाफूसी, मुझे कर गए थे वो निःशब्द....
शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?
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