Friday, 8 December 2017

उपांतसाक्षी

न जाने क्यूँ.....

जाने....
कितने ही पलों का...
उपांतसाक्षी हूँ मैं,
बस सिर्फ....
तुम ही तुम
रहे हो हर पल में,
परिदिग्ध हूँ मैं हर उस पल से,
चाहूँ भी तो मैं ....
खुद को...
परित्यक्त नहीं कर सकता,
बीते उस पल से।

उपांतसाक्षी हूँ मैं....
जाने....
कितने ही दस्तावेजों का...
उकेरे हैं जिनपर...
अनमने से एकाकी पलों के,
कितने ही अभिलेख.... 
बिखेरे हैं मन के 
अनगढ़े से आलेख,
परिहृत नही मैं
पल भर भी...
बीते उस पल से।

आच्छादित है...
ये पल घन बनकर मुझ पर,
आवृत है....
ये मेरे मन पर,
परिहित हूँ हर पल,
जीवन के उपांत तक,
दस्तावेजों के हाशिये पर...
उपांतसाक्षी बनकर,
परिदिग्ध हूँ,
परिहृत नही हूँ मै,
पल भर भी...
बीते उस पल से।

न जाने क्यूँ.....

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