Monday, 18 February 2019

यूँ न था बिखरना

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

छोड़ कर यादें, वो तो तन्हा चला,
तोड़ कर अपने वादे, यूँ कहाँ वो चला,
तन्हाइयों का, ये है सिलसिला,
यूँ इस सफर में, तन्हा न था चलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

कली थी, अभी ही तो खिली थी!
सजन के बाग की, मिश्री की डली थी!
था अपना वही, एक सपना वही,
यूँ न बाहों से उनकी, था निकलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

गुजर चुके अब, सपनों के दिन,
अब गुजरेंगे कैसे, वक्त अपनों के बिन,
न था वास्ता, तंज लम्हों से मेरा,
यूँ तंग राह में अकेले, न था गुजरना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 17 February 2019

दर्द के गीत -पुलवामा

सुबह नहीं होती आजकल, ऐ मेरे मीत..

सुनता रहा रातभर, मैं दर्द का गीत,
निर्झर सी, बहती रही ये आँखें,
रोता रहा मन, देख कर हाले वतन,
संग कलपती रही रात, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

सह जाऊँ कैसे, उन आँखों के गम,
सो जाऊँ कैसे, ऐ सोजे-वतन,
बैचैन सी फ़िज़ाएं, है मुझको जगाए,
कोई तड़पता है रातभर, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

है दर्द में डूबी, वो आवाज माँ की,
है पिता के लिए, बेहोश बेटी,
तकती है शून्य को, इक अभागिन,
विलखती है वो बेवश, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

उस आत्मा की, सुनता हूँ चीखें,
गूंज उनकी, आ-आ के टोके,
प्रतिध्वनि उनकी, बार-बार रोके!
आह करती है बेचैन, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

न जाने फिर कब, होगा सवेरा?
क्या फिर हँसेगा, ये देश मेरा?
कब फिर से बसेगा, ये टूटा बसेरा?
कब चमकेंगी आँखें, ऐ मेरे मीत?

सुबह नहीं होती आजकल, ऐ मेरे मीत....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 15 February 2019

पुलवामा (14.02.2019)

पुलवामा की आज 14.02.2019 की, आतंकवादी घटना और नौजवानों / सैनिकों की वीरगति से मन आहत है....

प्रश्न ये, देश की स्वाभिमान पर,
प्रश्न ये, अपने गणतंत्र की शान पर,
जन-जन की, अभिमान पर,
प्रश्न है ये,अपने भारत की सम्मान पर।

ये वीरगति नहीं, दुर्गति है यह,
धैर्य के सीमा की, परिणति है यह,
इक भूल का, परिणाम यह,
नर्म-नीतियों का, शायद अंजाम यह!

इक ज्वाला, भड़की हैं मन में,
ज्यूँ तड़ित कहीं, कड़की है घन में,
सूख चुके हैं, आँखों के आँसू,
क्रोध भरा अब, भारत के जन-जन में!

ज्वाला, प्रतिशोध की भड़की,
ज्वालामुखी सी, धू-धू कर धधकी,
उबल रहा, क्रोध से तन-मन,
कुछ बूँदें आँखों से, लहू की है टपकी।

उबाल दे रहा, लहू नस-नस में,
मेरा अन्तर्मन, आज नहीं है वश में,
उस दुश्मन के, लहू पी आऊँ,
चैन मिले जब, वो दफ़न हो मरघट में।

दामन के ये दाग, छूटेंगे कैसे,
ऐसे मूक-बधिर, रह जाएँ हम कैसे,
छेड़ेंगे अब गगणभेदी हुंकार,
प्रतिकार बिना, त्राण पाएंगे हम कैसे!

ये आह्वान है, पुकार है, देश के गौरव और सम्मान हेतु एक निर्णायक जंग छेड़ने की, ताकि देश के दुश्मनों को दोबारा भारत की तरफ आँख उठाकर देखने की हिम्मत तक न हो। जय हिन्द ।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 12 February 2019

मासूम शब्द

शब्दों को, खुद संस्कार तो ना आएंगे!

शब्दों का क्या? किताबों में गरे है!
किसी इन्तजार में पड़े है,
बस इशारे ही कर ये बुलाएंगे,
शब्दों को, खुद ख्वाब तो ना आएंगे,
कुंभकर्ण सा, नींद में है डूबे,
उन्हें हम ही जगाएंगे।

दूरियाँ, शब्दों से बना ली है सबने!
तड़प रहे शब्द तन्हा पड़े,
नई दुनियाँ, वो कैसे बसाएंगे,
किताबों में ही, सिमटकर रह जाएंगे,
चुन लिए है, कुछ शब्द मैनें,
उनकी तन्हाई मिटाएंगे।

वरन ये किताबें, कब्र हैं शब्दों की!
जैसे चिता पर, लेटी लाश,
जलकर, भस्म होने की आस,
न भय, न वैर, न द्वेष, न कोई चाह,
बस, आहत सा इक मन,
ये लेकर कहाँ जाएंगे।

चलो कुछ ख्वाब, शब्दों को हम दें!
संजीदगी, चलो इनमें भरें,
खुद-ब-खुद, ये झूमकर गाएंगे,
ये अ-चेतना से, खुद जाग जाएंगे,
रंग कई, जिन्दगी के देकर,
संजीदा हमें बनाएंगे।

वर्ना शब्दों का क्या? बेजान से है!
चाहो, जिस ढ़ंग में ढ़ले हैं,
कभी तीर से, चुभते हृदय में,
कभी मरहम सा, हृदय पर लगे हैं,
शब्द एक हैं, असर अनेक,
ये पीड़ ही दे जाएंगे।

शब्दों को, खुद संस्कार तो ना आएंगे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 10 February 2019

छद्म-एहसास

छद्म-एहसास या इक विश्वास,
फिर कितने पास, ले आया है नीलाभ-नभ!

सीमा-विहीन शून्यता, अंतहीन आकाश,
नीलाभ सा, वो रिक्त आभास,
यहीं-कहीं तुम्हारे होने का, छद्म-एहसास,
शून्य सा, वो ही लम्हा,
खाली-खाली ही, पर भरा-भरा,
इक विश्वास, पास, ले आया है नीलाभ नभ!

ये दिशाएं बाहें फैलाए, कुछ कहना चाहे,
शून्य में, भटकती वो आवाज,
रंगमच पर, दृष्टिगोचर होते बजते साज,
छंद-युक्त, पर चुप-चुप,
थिरकता पल, पर ठहरा-ठहरा,
इक विश्वास, पास, ले आया है नीलाभ नभ!

हर सुबह ले आती है, ये छद्म-एहसास,
जब देखता हूँ, वो नील-आकाश,
किसी झील मे तैरते, श्वेत हंसो के सदृश,
श्वेताभ बादलों के पुंज,
क्षणिक ही, पर उम्मीद जरा-जरा,
इक विश्वास, पास, ले आया है नीलाभ नभ!

या छद्म-एहसास, ले आया है नीलाभ-नभ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 9 February 2019

खत

खत कितने ही, लिख डाले हमनें,
कितने ही खत, लिखकर खुद फाड़ डाले,
भोले-भाले, कितने हम मतवाले!

बेनाम खत, खुद में ही गुमनाम खत,
अनाम खत, वो बदनाम खत,
अंजान खत, उनके ही नाम खत,
खत, मेरी ही अरमानों वाले,
कितने ही खत, लिखकर फाड़ डाले!

अनकहे शब्दों में, ढ़लकर गाते खत,
हृदय की बातें, कह जाते खत,
भीगते खत, नैनों को भिगाते खत,
खत, मेरी ही जागी रातों वाले,
कितने ही खत, लिखकर फाड़ डाले!

करुणा में डूबे, भाव-गीत वाले खत,
प्रेम संदेशे, ले जाने वाले खत,
पीले खत, सुनहले रंगों वाले खत,
खत, मेरी हृदय के छालों वाले,
कितने ही खत, लिखकर फाड़ डाले!

खत कितने ही, लिख डाले हमनें,
कितने ही खत, लिखकर खुद फाड़ डाले,
भोले-भाले, कितने हम मतवाले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

एकाकी

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

कचोटते हैं गम, ग़ैरों के भी मुझको,
मायूस हो उठता हूँ, उस पल मैं,
टपकते हैं जब, गैरों की आँखों से आँसू,
व्यथित होता हूँ, सुन-कर व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

किसी की, नीरवता से घबराता हूँ,
पलायन, बरबस कर जाता हूँ,
सहभागी उस पल, मैं ना बन पाता हूँ,
ना सुन पाता हूँ, थोड़ी भी व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

क्यूँ बांध रहे, मुझसे मन के ये बंधन,
गम ही देते जाएंगे, ये हर क्षण,
गम इक और, न ले पाऊँगा अपने सर,
ना सह पाऊँगा, ये गम सर्वथा !

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

एकाकी खुश हूँ मैं, एकाकी ही भला,
जीवन पथ पर, एकाकी मैं चला,
दुःख के प्रहार से, एकाकी ही संभला,
बांधो ना मुझको, खुद से यहाँ!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 5 February 2019

वक्त से रंजिशें

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

था बेहद ही अजीज वो,
था दिल के बेहद ही करीब वो,
चुपके से, दुनियाँ से छुपके,
पुकारा था उसे मैनें,
डग भरता वक्त,
बेखौफ आया मेरे करीब,
बनकर मेरा अजीज,
तोड़ कर ऐतबार, छोड़ शरम,
मुझसे ही, करता रहा साजिश!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

पनाहों में अपने लेकर,
आगोश में, हौले से भर कर,
सहलाता है हँसकर,
फेरकर रुख, करवटें बदल,
रचता है साजिश,
ये रंग, ये रंगत, ये कशिश,
मेरी उम्र पुरकशिश,
पल-पल, मेरे इक-इक क्षण,
मुझसे छीन, ले जाता है संग!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

खफा हूँ मैं वक्त से,
रास कहाँ आया है वो मुझे,
टूटा है मेरा भरम,
उसे न आया मुझपे रहम,
रहा मेरा वहम,
कि वक्त का है करम!
जुदा हुआ मुझसे,
व्यर्थ गई है सारी कोशिशें,
अब भी है, वक्त से मेरी रंजिशें!

वक्त की है साजिशें, या है बेवजह की ये रंजिशें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 3 February 2019

चलते रहो

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

अवसान हो, सांध्य काल हो,
नव-विहान हो, क्षितिज लाल हो,
धूल-धूल, गोधुलि काल हो,
रात्रि प्रहर, क्रुर काल हो,
चलते चलो, कोई ॠतुकाल हो!

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

वियावान हो, या सघन जाल हों,
सामने तेरे खड़ा, कोई महाकाल हो,
राहों में कहीं, पर्वत विशाल हो,
भुज मे तेरे, ना कोई ढाल हो,
चलते चलो, कि लक्ष्य निढ़ाल हो!

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

अवरोध हो, बाधा विकराल हो,
अन्तर्मन कहीं, कोई भी मलाल हो,
पथ पर, बहेलियों के जाल हो,
कठिन कितने ही, सवाल हो,
चलते चलो, पस्त तेरे न हाल हो!

चलते रहो, तुम चलो अनन्त काल तक,
बस हाथों में, इक प्रखर मशाल हो।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

अनुबंध

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

तसव्वुर में, उन्ही की यादों में मन,
होठों पे तवस्सुम, आँखों मे शबनम,
छलकते पैमाने, सूना सा आंगन,
थिरकता इक धुन, चुप-चुप सरगम,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

तसव्वुर में, इठलाते मंडराते घन,
मुस्काते कण-कण, कंपित धड़कन,
बरसते वो घन, भीगा सा सावन,
रिश्तों की नई परिभाषा, रचता मन,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

अंजाने शब्द, अंजानी ये भाषा,
हकीकत है, या कल्पना कोरा सा,
मन की दीवारों पर, जरा सा,
है लिखा कहीं, या है अधलिखा सा,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

चैन जरा सा, बेचैनी सी हर पल,
अनुबंधों से परे, मन कहता यूँ चल,
बंध रहित  अनुबंधों से विकल,
ऐ दिल चल, बह कहीं और निकल,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!