स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!
ज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
चाह कोई जागी हो मन में,
यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!
भ्रम ने जाल बुने थे कुछ सुंदर,
आँखों में आ बसे ये आकर,
टूटा भ्रम, जब सत्य का भान हुआ!
मन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
जैसे पागल या कोई बंजारा,
विचलित था मन, अब शांत हुआ!
छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
हम चले थे भ्रम की राह में,
कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!
सत्य और भ्रम विमुख परस्पर,
विरोधाभास भ्रम के भीतर,
अन्तर्मन जीता, ज्यूं परित्राण हुआ!
स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!
ज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
चाह कोई जागी हो मन में,
यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!
भ्रम ने जाल बुने थे कुछ सुंदर,
आँखों में आ बसे ये आकर,
टूटा भ्रम, जब सत्य का भान हुआ!
मन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
जैसे पागल या कोई बंजारा,
विचलित था मन, अब शांत हुआ!
छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
हम चले थे भ्रम की राह में,
कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!
सत्य और भ्रम विमुख परस्पर,
विरोधाभास भ्रम के भीतर,
अन्तर्मन जीता, ज्यूं परित्राण हुआ!
स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!
छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
ReplyDeleteहम चले थे भ्रम की राह में,
कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!
बेहतरीन रचना आदरणीय
बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
ReplyDeleteचाह कोई जागी हो मन में,
यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!....बहुत ख़ूब आदरणीय
सादर
बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Delete
ReplyDeleteमन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
जैसे पागल या कोई बंजारा,
विचलित था मन, अब शांत हुआ!
बहुत ही बेहतरीन रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Delete