Monday, 15 February 2016

स्वर्ण सम बालूकण

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

स्वर्णकण सी चमक रही, बालूकण मरुस्थल के,
कड़कती तेज प्रखर धूप ज्वाला में जल जल के।
हे मानव, जीवनमरु में बालू सम निखरो जल के।

अकित हुई मरुस्थल स्वर्ण सी बालू की आभा में,
शोभित हो कर बिखर रहे स्वर्णकण चहु दिशा में,
हे मानव, स्वर्णकण सी बिखरो जीवन की राहों में।

उठी वेग से आंधी, धूलकण बिखरी स्वर्णकण बन,
बरस रही फेनिल स्वर्ण सी, उड़उड़ कर बालूकण।
हे मानव, तुम उड़ो मरूजीवन के स्वर्णकणों सम।

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

कठिन परिभाषा जीवन की

मान लो मेरी, परिभाषा बड़ी कठिन इस जीवन की!

बोझ लिए सीधा चलना सधे पैरों भी है भारी,
प्राणों का यह विचलन, सबल मन पर भी है भारी,
मौन वेदणा सहता सहनशील मानव इस जीवन की।

हिलते मिलते थे जीवन कभी एक डाल पे,
भार असह्य बोझ की थी उस निर्बल डाल पे,
कल्पना नहीं टूटेगी कभी, बोझ से डाली जीवन की

जिज्ञासा सशंकित आँखों में भविष्य की,
कुहासा छटती नही, जीवन के इस फलक की,
परिभाषा हो चुकी कठिन, इस उलझी जीवन की।

मान लो मेरी, परीक्षा लेता वो बड़ी कठिन जीवन की!

कल किसने देखा

वो बस कल की बातें करता रहता नादान,
पल-पल रंग बदलती दुनियाँ से बेखबर वो इंसान,
जीवन तो बस इस पल है, कल से हम सब अंजान।

कल किसने देखा है, कल से किसकी पहचान,
पल में यहाँ बदलता मौसम, बदल जाते पल में इंसान,
पल मे धरा बदलती कक्षा, जानकर भी वो अंजान।

घूमता कालचक्र का पहिया, मांग रहा बलिदान,
सर्वस्व निछावर कर इस पल में, गर बनना तुझे महान,
तलाश किस अनन्त की तुझको, तू कोरा अंजान।

स्पर्शानुभूति

स्पर्श किया किसी ने दामन,
पीठ के पीछे से चुपके से,
कौंधी कहीं तब मेरी चितवन,
महसूस हुआ जैसे कंधों पर,
अपनी सी गर्माहट किसी ने रख दी।

उस स्पर्श मे कैसा अपनापन,
चल पड़ा परिमल का झोंका,
गूँजी पड़ीं फिर खिलखिलाहट,
टूक-टूक होकर बिखरा सन्नाटा,
निखरे होठ जब मर्माहट उसने रख दी।

स्पर्श किया था उसने जीवन,
स्पर्शानुभूति की सिलवटे मन में,
हृदय मंदार मंद मंद मुस्काता,
नींव रिश्तों की रखी तनमन में,
सिलसिले ख्वाबों के बनी हकीकत सी।

इस पल

वो बस कल की बातें करता रहता नादान,
पल-पल रंग बदलती दुनियाँ से बेखबर वो इंसान,
जीवन तो बस इस पल है, कल से हम सब अंजान।

कल किसने देखा है, कल से किसकी पहचान,
पल में यहाँ बदलता मौसम, बदल जाते पल में इंसान,
पल मे धरा बदलती कक्षा, जानकर भी वो अंजान।

घूमता कालचक्र का पहिया, मांग रहा बलिदान,
सर्वस्व निछावर कर इस पल में, गर बनना तुझे महान,
तलाश किस अनन्त की तुझको, तू कोरा अंजान।

Sunday, 14 February 2016

"अविनाशी बंधन"

(पूजनीय नाना नानी...की मोहक स्मृति में समर्पित)

स्मृति पटल पर अंकित वो बनकर एहसास,
अविनाशी मानस पटल मे जो, वो अविनाश,
विनाश न हो जग में जिसका, वो अविनाश,
बांधता "अविनाशी बंधन" में, वो अविनाश!

अभिमान वो हमारा उनसे कुल की पहचान,
अधिष्ठाता मर्यादा का, सत्कर्मो की वो खान,
निष्ठाकर्म, लग्नकर्म, अनुशासन का वो प्रेमी,
वो अविनाश, हम सब की आन, बान, शान।

कितने ही दूरदूर हों इनकी लड़ियों के मोती,
कसक एक दूजे की पल पल दिल में बढ़ती,
शरुआत हर सुबह उनकी यादों से ही होती,
उनकी स्मृति की क्षणों के संग शाम बीतती।

प्रार्थना करूँ हर पल उस अविनाशी ईश्वर से,
बढ़ता रहे कुलवृक्ष निकलती रहे नई कोपलें,
निरंतर बढ़ती रहे मानमर्यादा कुल की हमसे,
गौरवांवित हों हम महिमा-मंडित अविनाश।

अभिलाषा पल की

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

चाह अनन्त पलते इस मन में, 
घड़ियाँ बस पल दो पल जीवन में,
चाह सपनों की हसीन लड़ियों से, 
सजाता जीवन की घड़ियों को संग तेरे।

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इस पल में।

आज मोहक इस वेला में,
सुधि फिर लेती मन में इक आशा,
अरमान कई सजते इस तन मन में,
जीवन संध्या प्रहर पलती कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

डूब रहा मन अनचाही चाहों में,
सुख सपनों के नगरी की प्रत्याशा,
झंकृत हो रहा अनगिनत तार मन में,
जीवन की इस वेला में ये कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लूँ इक पल में।