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Saturday 11 November 2017

रेत सा लम्हा

वक्त की झोली में, अनंत लम्हे हैं भरे,
जीते जागते से, बिल्कुल हरे भरे...
क्युँ न मांग लूं, वक्त से मैं भी एक लम्हा,
चुपचाप क्युँ रहूँ मैं इस पल तन्हा.....?

होगा कोई तो लम्हा, मेरे भी नाम का,
भीड़-भाड़ में, हो जो मेरे काम का,
क्यूँ न ढूंढ़ लूँ, उस झोली से वो एक लम्हा,
तन्हा गुजार लूँ, मै वो ही लम्हा.....!

लम्हा न ऐसा कोई, बस होता जो मेरा,
करता रहा अनसूना, वक्त भी मेरा,
वक्त के हाथों कभी, छूटा था कोई लम्हा,
पास है मेरे, पर रेत सा है तन्हा......!

दूर दूर तक, लम्हों के रेत किसने बिखेरे,
रेत के वो लम्हे, अब तेरे है न मेरे!
दिया था वक्त ने, हरा-भरा जीवंत लम्हा,
भाग्य में मेरे, बस रेत सा लम्हा.....!

Monday 15 February 2016

स्वर्ण सम बालूकण

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

स्वर्णकण सी चमक रही, बालूकण मरुस्थल के,
कड़कती तेज प्रखर धूप ज्वाला में जल जल के।
हे मानव, जीवनमरु में बालू सम निखरो जल के।

अकित हुई मरुस्थल स्वर्ण सी बालू की आभा में,
शोभित हो कर बिखर रहे स्वर्णकण चहु दिशा में,
हे मानव, स्वर्णकण सी बिखरो जीवन की राहों में।

उठी वेग से आंधी, धूलकण बिखरी स्वर्णकण बन,
बरस रही फेनिल स्वर्ण सी, उड़उड़ कर बालूकण।
हे मानव, तुम उड़ो मरूजीवन के स्वर्णकणों सम।

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।