सुलगती रही, इन्हीं आबादियों में,
बहते रहे, तपते रेत के धारे...
सूखी हलक़, रूखी सी सड़क,
चिल-चिलाती धूप, रूखा सा फलक,
सूनी राह, उड़ते धूल के अंगारे,
वीरान, वादियों के किनारे,
दिन कई गुजारे!
सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!
सूखी पवन, अगन ही अगन,
सूखा हलक़, ना चिड़ियों की चहक,
न छाँव कोई, ना कोई पुकारे,
उदास, पलकों के किनारे,
दिन कई गुजारे!
सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!
खिले टेसू, लिए इक कसक,
जले थे फूल, या सुलगते थे फलक,
दहकते, आसमां के वो तारे,
विलखते, हृदय के सहारे,
दिन कई गुजारे!
सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!
बहते रहे, तपते रेत के धारे...
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)