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Friday, 7 January 2022

मौसम

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

झांक कर गुम हुई, इन खिड़कियों से रौशनी,
लौट कर, दोबारा फिर न आईं,
दिन यूं ढ़ला, ज्यूं हों, रातें इक सुरंग सी,
धूप थी, पर उजाले कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

छूकर किनारों को, गुजर जाती थी धार इक,
यकायक, रुख ही, बदल चुकी,
बेसहारे, निहारे दूर अब भी वो किनारे,
शबनम भरे, किनारे कितने नम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

टीस बनकर, चुभती रही, सर्द सी इक पवन,
पले, एहसास कहां अब गर्म से,
उड़ा कर ले चली, कहीं वो ही पुरवाई,
उस ओर, जिधर तुम थे न हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

बदले हैं मौसम, बदले तराने, बदली सी धुन,
गुम हुई, पायलों की वो रुनझुन,
सुर बिन, कैसे खिले मन के ये वीराने,
इस धुन में, संगीत कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 30 April 2021

विरक्ति क्यूँ

जीवन से, गर जीवन छिन जाए,
कौन, किसे बहलाए!

आवश्यक है, इक अंतरंग प्रवाह,
लघुधारा के, नदी बनने की अनथक चाह,
बाधाओं को, लांघने की उत्कंठा,
जीवंतता, गतिशीलता, और,
थोड़ी सी, उत्श्रृंखलता!

गर, धारा से धारा ना जुड़ पाए,
नदी कहाँ बन पाए!

कुछ सपने, पल जाएँ, आँखों में,
पल भर,  हृदय धड़क जाए, जज्बातों में, 
मन खो जाए, उनकी ही बातों में,
कण-कण में हो कंपन, और,
थोड़ी सी, विह्वलता!

गर, दो धड़कन ना मिल पाए,
सृष्टि, कब बन पाए!

विरक्ति, उत्तर नहीं इस प्रश्न का,
जीवन से विलगाव, राह नहीं जीवन का,
पतझड़, प्रभाव नहीं सावन का,
आवश्यक इक, मिलन, और,
थोड़ी सी, मादकता!

जीवन से, गर जीवन छिन जाए,
कौन, किसे बहलाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 April 2021

किस्सों में थोड़ा सा

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

मुकम्मल सा, इक पल,
उत्श्रृंखल सी, इठलाती इक नदी,
चंचल सी, बहती इक धारा,
ठहरा सा, इक किनारा!

सपनों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

धारे के, वो दो किनारे,
भीगे से, जुदा-जुदा वो पल सारे,
अविरल, बहती सी वो नदी,
ठहरी-ठहरी, इक सदी!

सवालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

अधूरी सी, बात कोई,
जो तड़पा जाए, पूरी रात वही,
याद रहे, वो इक अनकही,
रह-रह, नैनों से बही!

ख्यालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

रुक-रुक, वो राह तके,
इस चाहत के, कहाँ पाँव थके!
उभर ही आऊँ, मैं यादों में,
जिक्र में, या बातों में!

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 2 August 2020

एक धारा

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!

वो, भिगोते थे, कभी बारिशों में,
लरजते थे, कभी सुर्ख फूलों पे हँस कर,
यूँ, सिमट आते थे, दबे पाँव चलकर,
अब वो मिले, दो बूँद बनकर,
और, नैनों में उतरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे.......

यूँ अनवरत, बहती है, एक धारा,
यूँ, लगता है हर-पल, ज्यूँ तुम ने पुकारा,
डूबी सी साहिल, का है इक किनारा,
थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा,
और, हम हैं ठहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे......

यूँ भी, छलक ही जाते हैं, प्याले,
अक्सर, टूटते भी हैं, छलकते-छलकते,
वो, दो बूँद तो, हैं बस तेरी यादों के,
उलझती सी, जज्बातों के,
और, हैं ये पहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 22 March 2020

वो नदी सी

वो, नदी सी!

बंधी, दो किनारों से,
कहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
ना, कभी कम,
तुम, ये धार करना, 
उमर भर, साथ बहना,
संग-संग,
बहूंगी, प्रवाह बन!

रही, उन दायरों में,
उलझी, बहावों के अनमने सुरों में,
चली संग, सफर पर,
रत, अनवरत,
अल्हड़, नादान सी,
दायरों में, गुमनाम सी,
सतत्  ,
बहती, अंजान बन!

थकी, थी धार अब,
सिमटना था, उसे उन समुन्दरों में,
सहमी थी, नदी अब,
गुम, वो धारे,
खो, चुके थे किनारे,
विस्तृत, हो चले थे दायरे,
चुप सी हुई,
मिलकर, सागरों में!

वो, नदी सी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 1 March 2020

रेत के धारे

सुलगती रही, इन्हीं आबादियों में, 
बहते रहे, तपते रेत के धारे...

सूखी हलक़, रूखी सी सड़क,
चिल-चिलाती धूप, रूखा सा फलक,
सूनी राह, उड़ते धूल के अंगारे,
वीरान, वादियों के किनारे,
दिन कई गुजारे!

सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!

सूखी पवन, अगन ही अगन,
सूखा हलक़, ना चिड़ियों की चहक,
न छाँव कोई, ना कोई पुकारे,
उदास, पलकों के किनारे,
दिन कई गुजारे!

सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!

खिले टेसू, लिए इक कसक,
जले थे फूल, या सुलगते थे फलक,
दहकते, आसमां के वो तारे,
विलखते, हृदय के सहारे,
दिन कई गुजारे!

सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!
बहते रहे, तपते रेत के धारे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 30 January 2020

लम्हा

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

वो बहती, सी धारा,
डगमगाए, चंचल सी पतवार सा,
आए कभी, वो सामने,
बाँहें, मेरी थामने,
कभी, मुझको झुलाए,
उसी, मझधार में,
बहा ले जाए, कहीं, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

कितना, करीब वो,
है दूर उतना, बड़ा ही, अजीब वो,
न, बाहों में, वो समाए,
न, हाथों में आए,
रहे, यादों में ढ़लकर,
इसी, अवधार में, 
कहाँ ले जाए, वही, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

लम्हे, कल जो भूले,
ना वो फिर मिले, कहीं फिर गले,
कभी, वो अपना बनाए,
कभी, वो भुलाए,
करे, विस्मित ये लम्हे,
इसी, दोधार में, 
भूला है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 12 August 2019

दोबारा

आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!

खुले हैं पट, इतिहास के खुले हैं लट,
काश्मीर की इक भूल से, घरों के धुले हैं चौखट,
बाँट दे जो मन, अब हो न कोई ऐसी धारा,
इतिहास वो ही फिर, ना बने दोबारा!

आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!

तीन सौ सत्तर, टुकड़े कर के दिलों के,
खुफिया पते दुश्मनों को, देकर गए थे किलों के,
छुपे थे घरों में भेदिये, उल्टी बही थी धारा,
भूल वो ही फिर, अब ना हो दोबारा!

आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!

वो ही भेदिए, अब जयचंद बन चुके,
इन्सान की शक्ल में, वो ही भेड़िये हैं बन चुके,
उनकी ही सियासत, का खेल है ये सारा,
कामयाब वो ही, फिर न हो दोबारा!

आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!

जो आग है दिलों में, सम्हालो उन्हें,
पहचानो दुश्मनों को, कर दो खाक तुम उन्हें,
अमन, चैन की, बह चलेगी ऐसी धारा,
जम्हूरियत पर, गर्व होगा दोबारा!

आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!

इतिहास हम बनेंगे, गर्व सब करेंगे,
पीढियाँ दर पीढियाँ, हम पर नाज कर सकेंगे,
काश्मीर ही जनन्त, बनेगा फिर ये सारा,
कश्मीरियत, जी उठेगा दोबारा!

आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 26 March 2019

अश्रु, तू क्यूँ बहता?

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद टूटा, मन का घड़ा,
या बहती दरिया का मुँह, किसी ने मोड़ा,
छलक आए ये सूखे से नयन,
लबालब, ये मन है भरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद बही, रुकी सी धारा,
या असह्य सी व्यथा, कह किसी ने पुकारा,
कुछ पल रही, पलकों में अटकी,
रोके, कब रुकी वो धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद खुद, बही हो धारा,
या अन्तर्मन ही उभरा हो, दबा कोई पीड़ा,
भूली दास्ताँ, हो यादों मे उमरा,
बरबस, बही वो अश्रुधारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, व्यथित वसुधा,
हो ख़ामोशियों की, कोई भीगी सी ये सदा,
कहीं व्योम में, जख्म हो उभरा,
बरस आई, बूँदों सी धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, रातों का मारा,
दुस्कर उन अंधियारों से, नवदल हो हारा,
अश्रुधार, छलक आईं कोरों से,
ओस, नवदल पर उभरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 20 June 2017

रक्तधार

अविरल बहती ये धारा, हैं इनकी पीड़ा के आँसू,
अभिलाषा मन में है बोझिल, रक्तधार से बहते ये आँसू.....

चीरकर पर्वत का सीना, लांघकर बाधाओं को,
मन में कितने ही अनुराग लिए ये धरती पर आई,
सतत प्रयत्न कर भी पाप धरा के न धो पाई,
व्यथित हृदय ले यह रोती अब, जा सागर में समाई।

व्यर्थ हुए हैं प्रयत्न सारे, पीड़ित है इसके हृदय,
अन्तस्थ तक मन है क्षुब्ध, सागर हुआ लवणमय,
भीग चुकी वसुन्धरा, भीगा न मानव हृदय,
हत भागी सी सरिता, अब रोती भाग्य को कोसती।

व्यथा के आँसू, कभी बहते व्यग्र लहर बनकर,
तट पर बैठा मूकद्रष्टा सा, मैं गिनता पीड़ा के भँवर,
लड़ी थी ये परमार्थ, लुटी लेकिन ये यहाँ पर,
उतर धरा पर आई, पर मिला क्या बदले में यहाँ पर?

अविरल बहती ये धारा, हैं इनकी पीड़ा के आँसू,
अभिलाषा मन में है बोझिल, रक्तधार से बहते ये आँसू.....