Wednesday 6 January 2016

संचित प्रीत का आँचल

प्रीत तुझसे ही प्यास तुझसे ही!

संचित प्रीत का आँचल बन,
फैल जाओ तुम हृदय पर,
बेसुध धड़कनों को,
थोड़ा सहारा मिल जाए,
हृदय के अन्तस्थ की प्यास,
जरा सी तो बुझ जाए!

स्वर तुझसे ही एहसास तुझसे ही!

संगीत हृदय वीणा का बन,
मधुर तान तुम छेड़ो मन पर,
बेसुरे एहसासों को,
तार स्वर का मिल जाए,
जर्जर वीणा के सुर की प्यास,
थोड़ी सी तो बुझ जाए!

संचित प्रीत का आँचल तुझसे ही!

दिल ढूंढता अक्सर

चुपके से जो कह दी थी जो तूने,
कानों मे फिर बात वही मद्धिम सी,
अकंपित एहसास फिर लगे थे जगने,
आँखों मे जल उठी थी इक रौशनी,
सपने सजीव होकर लगे थे सजने।

दीप अगिनत जले थेे आशाओं के,
स्वर अनन्त उभरे थे मधुर वादों के,
बजते थे प्राणों में संगीत वीणा के 
झूमते थे वाद्य कितने अरमानों के,
मंजर कितने बदले थे एहसासों के।

स्वर वही ढ़ूंढता रहता दिल अक्सर,
फिरता वियावान वादियों मे निःस्वर,
राहों में दिखता नहीं कोई दूर-दूर तक,
रौशनी फिर वही ढ़ूढ़ती रहती हैं आँखे,
अंधेरों में नूर कोई जलता नही दूर तक।

मोह के बंधन

मोह पास के बन्धन मे बंधे फसे हम,
छोटी सी इस दुनिया में फिर मिले हम,
कौंध गयी फिर यादों की बिजलियां,
फिर एक बार मोह की जुड़ी लड़ियाँ।

पहचान उसी मोह में आज तेरी जुड़ी,
जो नित नयी जोड़े जिन्दगी की लड़ी,
पर देख इतिहास दुबारा घटित होता नहीं,
बिछुड़ेंगे फिर हम छोड़ बन्ध मोह के घड़ी?

व्यक्तित्व

व्यक्तित्व धीर गंभीर हो, बने पेड़ सा ऊँचा,
आँधियों में भी हो खड़ा किए सिर ऊँचा,
उगते डूबते सूरज चाँद दे तुझको आशीष,
ऋतु बदलें, मेघ उमड़े तू न कभी पसीज।

व्यक्तित्व बने सन्तुलित शान्त धीर गंभीर,
विनम्रता की हरियाली से रहे आच्छादित,
अन्तस् में इसके उमरती रहे ममता भावना,
देश, समाज, जनकल्याण हो तेरी साधना।

पेड़ की मर्मरित पत्तियों सा हो कोमल हृदय,
नम्रता और विनम्रता करे इनके मार्ग प्रशस्थ,
तू बार-बार जा झूल प्रतिकूल हवाओं संग,
पर सफलता का श्रेय पैरों-तले मिट्टी को दे।

शख्शियत धीर गंभीर बने पेड़ सा बढ़ता रहे,
परिस्थितियाँ प्रतिकूल भी इन्हे हिला ना सकें, 
व्यक्तित्व की मजबूत जड़ें दूर धरती में रहे,
श्रेय तेरे मान अभिमान का समाज लेता रहे।

Tuesday 5 January 2016

तू रहता कहाँ?

आकाश और सागर के मध्य,
क्षितिज के उस पार कहीं दूर,
जहाँ मिल जाती होंगी सारी राहें,
खुल जाते होंगे द्वार सारे मौन के,
क्या तू रहता है दूर वहीं कही?

क्षितिज के पार गगन मे उद्भित,
ब्रम्हांड के दूसरे क्षोर पर उद्धृत,
शांत सा सन्नाटा जहां है छाता,
मिट जाती जहां जीवन की तृष्णा,
क्या तू रहता क्षितिज के पार वहीं?

कोई कहता तू घट-घट बसता,
हर जीवन हर निर्जीव मे रहता,
कण कण मे रम तू ही गति देता,
क्षितिज, ब्रह्मान्ड को तू ही रचता,
मैं कैसे विश्वासुँ तू हैं यहीं कहीं?

मौन ही मुक्ति

जीवन की तृष्णाओं से,
मुक्त न कोई हो पाया,
चक्रव्युह इस तृष्णा का,
जग में कोई तोड़ न पाया,
अवसान वेला बची न तृष्णा,
चिरनिद्रा आगोश मे लेकर,
मौन ही इनसे मुक्त करेगा!

अकेन्द्रित चेतन का द्वार,
जीते जी न खुल सकेगा,
जीवन गांठ खुला न तुझसे,
जीकर भी तू क्या करेगा,
चिर निद्रा की आएगी वेला,
उस दिन तू वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!

शब्दों से परे नाद तू बोलता,
संवेदना से परे हैं तेरे संवाद,
अहंकार, ईर्ष्या घेरे है तुृझको,
ईन पर तू कब विजय करेगा,
जीते जी तू क्या मानव बनेगा,
इक दिन तू भी वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!

यादों के साए

रथ किरण संग याद तुम्हारी,
मन को विस्मृत कर जाती हर प्रात,
जाने क्या-क्या कहती रहती,
किन बातों में है उलझी रहती,
सपने नए कई बुन जाती,
तृष्णगी तन्हाई के तृप्त कर जाती,
फासले सदियों के लगने लगते कम,
सूखी पथराई आँखें भी हो जाती हैं नम।

जर्जर वीणा के तारों से खेलती,
विरानियों में दिल के शहर कर जाती,
शांत मन में निर्झर लहर सी इठलाती,
दिल में चंचल तीस्ता सी मदमाती,
सांझ धुमिल किरण देख फिर मुरझा जाती,
लौट जाती हो तुम ढ़लती चाँद संग,
कहती वापस आऊँगी रथकिरण संग,
छोड़ जाती हो फिर तन्हाई मे कर विह्वल मन।

सूर्याभिनंदन


हे सूर्य-किरण,
अभिनन्दन तेरा करुँ,
प्रथम रश्मि आभा तू,
मैं क्षण-क्षण विस्मित,
अपलक तेरा रूप निहारूं,
मन चेतन प्राण वश तेरे,
क्या तुझ पर वारूँ?

रश्मि, चेतना, विश्वास,
नित् तुझ संग नैन धरूँ,
तज रात्रि घनघोर तम,
तेरा आलोकित पथ धरूँ,
तुम आशा तुम जीवन प्राण,
अभिन्नदन तेरा करूँ,

हे सूर्य किरण,
दे निजजीवन की आहुति,
नित आरती तेरी उतारुँ ।

चिर प्रेयसी, अनन्त-प्रणयिनी


तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

काल सीमा से परे हमारा प्रणय,
चिर प्रेयसी तुम जन्म-जन्न्मातर से,
मेरी कल्पनाओं में बहती निर्बाध प्रवाह सी,
इस जीवन-वृत्त के पुनर्जन्म की स्मृति सी,
विस्तृत अन्तर्दृष्टि पर मोह आवरण जैसी।

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

तुम अप्राप्य निधि जीवन वृत्त की,
तुम अतृप्त तृष्णा जन्म-जन्मान्तर की,
लुप्त हो जाती है जो आँखों में आकर,
क्या अपूर्ण तृष्णा की तृप्ति कभी हो पाएगी?
क्या तृष्णा-तृप्ति में समाहित हो पाएँगी?

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

तृष्णा और तृप्ति

तृष्णा और तृप्ति का मिलन,
शायद क्या होगा इस जीवन,
तृष्णा में ही इतना घना जीवन,
चाह नई तृष्णा की हर क्षण।

जन्म-जन्मान्तर की तृष्णा,
क्या कभी हो पाएगी पूर्ण,
हर जन्म फिर नई एक तृष्णा,
चाह तृप्ति की सदा अपूर्ण।