हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!
वीथिकाएं, बिखरी यादों की भुजाएं,
बीते, उन पलों के, हर लम्हे,
उस ओर, बुलाए!
वही, ऊंचे, दरक्तों के साए,
मौसम, पतझड़ के,
जिन पर,
बे-वक्त, उभर आए!
हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!
बह चले धार संग, इस उम्र के सहारे,
रह गए खाली, बेपीर किनारे,
उस ओर, पुकारे,
कौन सुने, ये मौन भरमाए,
वो खामोश दिशाएं,
रह-रह,
अनबुझ, गीत सुनाए!
हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!
पूछे पता, दरक्तों से घिरी ये वीथिका,
दे इक छुवन, वो कौन गुजरा,
ये किसका, पहरा,
बंधा कर आस, छल जाए,
वो उनके ही साए,
खींच लाए,
भरमाए, संग बिठाए!
हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 11 जुलाई 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत धन्यवाद
Delete
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(११-०७ -२०२२ ) को 'ख़ुशक़िस्मत औरतें'(चर्चा अंक -४४८७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteअपने यकीन पर यकीन रखिये । बेहतरीन रचना ।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया
Deleteजितना आप मौसम के साथ जुड़ेंगे उतना ही आपको मौसम पर यकीनन यकीन आयेगा । उम्दा प्रस्तुति आदरणीय ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय दीपक जी
Deleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया
ReplyDelete