Wednesday 13 January 2016

और नहीं कुछ तुमसे चाह!

कुछ हल्का कर दो जीवन की व्यथा-भार,
तुम दे दो सुख के क्षण जीवन आभार,
प्रिय, बस और नही कुछ तुमसे चाह!

व्यथा-भार जीवन की संभलती नही अकेले,
दुःख के क्षण जीवन के चिरन्तन से खेले,
तुम दे दो साथ, और नही कुछ तुमसे चाह!

अर्थ जीवन का अकेले समझ नही कुछ आता,
राह जीवन की लम्बी व्यर्थ मुझे है लगता,
तुम हाथ थाम लो, और नही कुछ तुमसे चाह!

जग में सर्वश्रेष्ठ पूजनीय


सोचता हूँ कभी!

पत्थर को श्रद्धा पूर्वक पूजता रहूँ,
शायद थोड़ी संवेदना उसमे भी जग जाए,
जज्बातों के तूफान उसमे भी उमड़ पड़े,
पिघल पड़े या फिर दो बूंद आँसू ही निकल पड़े!
पर क्या ये संभव भी है क्या?

सोचता हूँ कभी!

पत्थर के संवेदना, जज्बात, आँसू तो होते नहीं!
लाख सर पटको, सर फूटेगा पत्थर नही!
फिर इन्सान पूजता क्यों उसको ही?
ईश की मूर्ति हेतु क्युँ चयनित पत्थर ही?

सोचता हूँ कभी!

शायद जग में पूजित होने के यही गुण है,
असंवेदनशीलता, ताकि भावना शून्यता पनपे,
गैर-जज्बाती होना, ताकि पीड़ा शून्यता जगे,
पत्थर दिल होना, ताकि मन हीनता सुलगे,

सोचता हूँ कभी, क्युँ न जग में सर्वश्रेष्ठ पूजनीय बनूँ?

तम जीवन का


छँटते नही रात के तम कभी,
व्यर्थ जाती मेहनत चाँद की भी,
रात्रि तम तमस घनघोर,
रौशनी चाँद की मद्धम चितचोर,
कुछ वश मे नही लाचार चाँदनी के भी?

काजल सम बादल नभ पर,
चाँदनी आभा को करते तितर बितर,
व्यर्थ कोशिश तारों के मंडली की भी,
रात्रि तम विहँसती हो मुखर,
कुछ वश मे नही लाचार तारों के भी?

तम जीवन का हरना हो तो,
खुद सूरज बन जग मे जलना होगा,
तम मिट जाएंगे चाँद तारों के भी,
जीवन हो जाएगा मुखर,
क्या वश मे है बनना सूरज इंसानों के भी?

अधूरा स्वप्न

बिखरे थे राहों में कुछ फूलों जैसे शय,
दुर्दशा देख द्रवित हो रूंध उठा हृदय,
हुई विह्वल आँखें मन को बांधु तो कैसे,
भाव प्रवण दामन मे समेट लिया ऐसे।

बसा लिया उस फूल को फिर हमने,
हृदय के अन्दर सुदूर कोने में कहीं,
महसूस हुआ स्पर्श उन फूलों सा ही,
व्यथा उसके मन की है अब मेरी ही।

भ्रम टूटा जब चुभन काँटो की हुई,
उसकी भी अपनी कोई आपबीती,
भूत के गर्त से निकल समक्ष आई,
सपन मृदु टूटे आँखे विह्वल हो आईं।

मृदुलता के कुछ क्षण साथ हमने थे बाँटे,
चुपके से दामन मे चुभ गए थे कुछ काँटे,
संशय भ्रम उन स्वप्नों के पर अब हैं छूटे,
क्या हुआ जब दिल किसी बात पर टूटे।

हाथों की रेखाएँ

चकित भाव से रह-रह वो देखता,
हाथों को रेखाओं को और सोचता,
क्या वश में है मेरी भाग्य रेखा?
क्या आज शेष बची है जीवन रेखा?

रेखाएँ मस्तिस्क की भी होती हाथों मे,
हृदय रेखा भी कुछ आरी-टेढ़ी,
फिकर कहाँ हृदय, मस्तिस्क रेखा की,
मति मस्तिस्क की खुद ही है खोई,
क्या देख पाएगा वो मस्तिस्क की रेखा?

वो वश करना चाहता रेखाओं में,
व्योम के तारे, वसुधा के सारे धन,
पर फिकर कहाँ मन के तम की,
मन तो खुद ही स्वप्न मे खोया,
क्या तोड़ बंध बना सकेगा प्रभा रेखा?

भाग्य,जीवन गर करना हो वश मे,
ज्योति वृत्त बना पथ वश में करो तुम,
चलो जहाँ मन, मस्तिस्क, प्राण चलते हैं,
संकल्प करो सोए मस्तिष्क जगा तुम,
क्या वश कर सकेगा तू जीवन भाग्य रेखा?

Tuesday 12 January 2016

टूटते संबंध

संबंध आपसी विश्वास और समर्पण की मजबूत नींव पर प्रगाढ होते और बढ़ते है। एहसास, जज्बात, संवेदना इन्हें और मजबूत बनाते हैं। समर्पण समय की मांग करता है और निजी उपलब्धियों की कु्र्बानी भी।

विश्वास पनपते है एहसासों के दामन मे, संवेदनाओं की कोख मे विश्वास छुपा होता है। जब एहसास और संवेदनाए मर चुकी हों, तब विश्वास की उम्मीद भी नही दिखती।

आज की अँधी दौर में इन्सान की मंजिल जीवन में कुछ हासिल कर लेना है सिर्फ, जज्बात और संवेदनाएँ दिखावे के है मात्र। अपने सहकर्मी को हम झूठी तसल्ली या झूठे दिखावे के अभिवादन कर बनावटी हसी दिखा देना मात्र संवेदना नही है।

निजी जीवन के निजी संबंध इन झूठे एहसासों से कही अधिक संवेदनशील होते हैं। 

हमारी जीवन में कुछ पाने की चाह में जब हम निजी संबंधों को कुचलने लगते है तब ये संबंध स्वतः ही मर जाते हैं, कहीं कोई शोर-शराबा नही होता, बस आत्मा मर जाती है एक।

संबंध शायद इन्ही वजहों से टूटते हैं। आज की असफल निजी पारिवारिक संबंथों के पीछे यही है शायद। मन की कराह पीड़ा रातों को हमे जगने पर मजबूर करते है।

दिल ढूंढता वो अफसाना

वो इक अफसाना,
सदियों से हृदय मे अंकित,
दिल की वादियों मे फूलों सा लहराता,
तेरी स्पर्श का मीठा अहसास देता,
सुकून मिल जाता।

लगता है जैसे,
कल की ही बात है अभी,
यादों की दृष्टिपटल पर उभर आता,
पलकें मूँद फिर मन को सहलाता,
सुकून मिल जाता।

दिल फिर ढूंढता,
वही हसरतों के खूबसूरत पल,
बेपरवाह हँसी, मधुमय बातों के सिलसिले,
मन की गुफाओं मे कैद वो अफसाना,
दिल को बेचैन कर जाता।

वो इक खूबसूरत अफसाना,
सदियों से दिल की वादियों मे लहराता।