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Thursday 15 September 2022

शब की परछाईं


रैन ढ़ले, सब ढ़ल जाए,
शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

तमस भरा, आंचल,
रचता जाए, नैनों में काजल,
उभरता, तम सा बादल,
बाहें खोल, बुलाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

इक, अँधियारा पथ, 
और, ये सरपट दौड़ता रथ,
अन-हद अनबुझ कथ
यूं , कहता जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जलते बुझते सपने,
ये हल्के, टिमटिम से गहने,
बोझिल सी पलकों पर,
कुछ लिख जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जीवन्त, सार यही,
शब सा, इक संसार यही,
सौगातें, सपन सरीखी,
नैनों को दे जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 15 November 2020

गहरी रात

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

इक दीप जला है, घर-घर,
व्यापा फिर भी, इक घुप अंधियारा,
मानव, सपनों का मारा,
कितना बेचारा,
चकाचौंध, राहों से हारा,
शायद ले आए, इक नन्हा दीपक!
उम्मीदों की प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

कतरा-कतरा, ये लहू जला,
फिर कहीं, इक नन्हा सा दीप जला,
निर्मम, वो पवन झकोरा,
तिमिर गहराया,
व्याकुल, लौ कुम्हलाया,
मन अधीर, धारे कब तक ये धीर!
कितनी दूर प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

तम के ही हाथों, तमस बना,
इन अंधेरी राहों पर, इक हवस पला,
बुझ-बुझ, नन्हा दीप जला,
रातों का छला,
समक्ष, खड़ा पराजय,
बदले कब, इस जीवन का आशय!
अधूरी, अपनी बात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!
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दीपावली का दीप, इक दिवा-स्वप्न दिखलाता  गया इस बार। कोरोना जैसी संक्रमण, विश्वव्यापी मंदी, विश्वयुद्ध की आशंका, सभ्यताओं से लड़ता मानव, मानव से ही डरता मानव आदि..... मन में पलती कितनी ही शंकाओं और इक उज्जवल सभ्यता की धूमिल होती आस के मध्य जलता, इक नन्हा दीप! इक छोटी सी लौ....गहरी सी ये रात.... और पलता इक दिवास्वप्न!
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 27 October 2019

दीप मेरा

ढ़ल ही जाएगी, तम की, ये भी रात!

करोड़ों दीप, कर उठे, एक प्रण,
करोड़ों प्राण, जग उठे, आशा के क्षण,
जल उठे, सारे छल, प्रपंच,
लुप्त हुए द्वेष, क्लेश, मन के दंश,
अब ये रात क्या सताएगी?
तम की ये रात, ढ़ल ही जाएगी!

यूँ तो, सक्षम था, एक दीप मेरा,
था विश्वस्त, हटा सकता है वो अंधेरा,
जला है, ये दीप, हर द्वार पर,
है ये भारी, तम के हरेक वार पर,
अब ये रात क्या डराएगी?
विध्वंसी ये रात, ढल ही जाएगी!

अंत तक, जलेगा ये दीप मेरा,
विश्वस्त हूँ मैं, होगा कल नया सवेरा,
होंगे उजाले, ये दिल धड़केगे,
टिमटिमाते, आँखों में सपने होंगे,
अब ये राह क्या भुलाएगी?
निराशा की रात, ढ़ल ही जाएगी!

तम की ये भी रात, ढ़ल ही जाएगी!

दीपावली की अनन्त शुभकामनाओं सहित.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 26 January 2019

आश्वस्ति

कुछ आश्वस्त हुए, भुक-भुक जले वे दीपक....

निष्ठुर हवा के मंद झौंके,
झिंगुर के स्वर,
दूर तक, वियावान निरन्तर,
मूकद्रष्टा पहर, कौन जो तम को रोके!

भुक-भुक, वे जलते दीये,
रहे बेचैन से,
जब तक वो जिये,
संग-संग चले, निष्ठुर हवा के साये तले!

वो थी कुछ बूँद पर निर्भर,
था कहाँ निर्झर,
जलकर हुए वो जर्जर,
निर्झरिणी, सिसकती रही थी रात-भर!

जैसे थम सी गई थी रात,
जमीं थी रात,
शाश्वत तम का पहरा,
आश्वस्ति कहाँ, बुझा-बुझा था प्रभात!

दीप के हृदय में सुलगती,
कुछ तप्त बूँदें,
दे रही थी आश्वस्ति,
तम ढ़ले, रोक कर न जाने को कहती!

कुछ आश्वस्त हुए, भुक-भुक जले वे दीपक....

Thursday 8 November 2018

बुझते दीप

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
शामत, अंधेरों की, आनेवाली थी!
कुछ दीप जले, प्रण लेकर,
रौशन हुए, कुछ क्षण वो भभककर,
फिर, उनको बुझता देखा मैनें,
अंधेरी रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कमी, आभा की थी?
या, गर्भ में दीप के, आशा कम थी?
बुझे दीप, यही प्रश्न देकर,
निरुत्तर था मैं, उन प्रश्नों को लेकर!
दृढ-स॔कल्प किया फिर उसने,
दीप्त दीपों को,
तिमिर से लड़ते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

अलख, कहाँ थी....
इक-इक दीप में, विश्वास कहाँ थी!
संकल्प के कुछ कण लेकर,
भीष्म-प्रण लिए, बिना जलकर,
इक जंग लड़ते देखा मैनें,
तम की रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

Monday 10 September 2018

बरसते घन

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, रोज ही भर ले आती हैं बूँदें,
भटकती है हर गली, गुजरता हूँ जिधर मैं,
भीगोती है रोज ही, ढूंढकर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

थमती ही नहीं, बूँदों से लदी ये घन,
बरसकर टटोलती है, रोज ही ये मेरा मन,
पूछती है कुछ भी, रोककर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

जोड़ गई इक रिश्ता, मुझसे ये घन,
कभी ये न बरसे, तो बरसता है मेरा मन,
तरपाती है कभी, यूँ छेड़कर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, निःसंकोच भिगोती है मुझे,
निःसंकोच मैं भी, कुछ कह देता हूँ इन्हें,
ये रोकती नही, कुछ कहने से मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

यूँ निःसंकोच, मिलती है रोज मुझे,
तोहफे बूँदों के, रोज ही दे जाती है मुझे,
भीगना तुम भी, भिगोए जो ये तुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

निःस्वार्थ हैं कितने, स्नेह के ये घन,
सर्वस्व देकर, हर जाती है धरा का तम,
बरस जाती हैं, अरमानों के ये बूँदें....

थमती ही नही, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

Monday 20 June 2016

उफ यह रात

उफ, यह डरी सहमी सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

उफ, ये रात ढलती है कितनी धीरे-धीरे,
कितने ही मर्म अपने गर्त अंधेरे साए में समेटे,
दर्द की चिंगारी में खुद ही जल-जलके,
तड़पी है यह रात अपनों से ठोकर खा-खा के,

उफ, यह बेचारी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

पड़े हैं कितने ही छाले इनके पैरों में,
दिन की चकाचौंध उजियारों मे चल-चल के,
लूटे हैं चैन अपनों नें ही इन रातों के,
सपन सलोने भी अब आते हैं बहके-बहके,

उफ, यह तन्हा सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

सुर्ख रातों की गहरी तम सी तन्हाई,
भाग्य की लकीरों सी इनकी हाथों मे गहराई,
सन्नाटों की चीरती आवाज सी लहराई,
आँखे रातों की भय, व्यथा, घबराहट से भर आई,

उफ, अंधेरी स्याह सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

Sunday 12 June 2016

छवि तुम्हारी

छवि लिए कुछ तारों सी उर में तुम हो समाए,
पलकों में, प्राणों में स्मृति बन कर तुम हो आए.....

संचित कर लूँ मैं चंचलता इन नैनों की नैनों में,
महसूस करूँ मैं अरूणोदय तेरे चेहरे की आभा में,
देखूँ मैं रजनी की तम सी परछाई तेरे ही जूड़े में,

स्वप्नमय आभा लिए सपनों में तुम हो समाए,
नींदों मे, ख्वाबो में जागृति बन कर तुम्ही हो छाए ....

संचित कर लूँ मैं हाला तेरे अधरों की प्याली में,
महसूस करूँ मैं रंग जीवन के तेरे नैनों की लाली में,
देखूँ मैं ख्वाब सुनहरे तेरे आँचल की हरियाली में,

मधुर राग कोयल की सपनों मे तुमने ही गाए,
स्वर में, काया में विस्मित छाया सी तुम गहराए....,

Friday 15 April 2016

आपके कदम

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

कदम आपके पडते हों जहाँ,
शमाँ जिन्दगी की जल उठती हैं वहाँ,
गुजरती हैं तुझसे ही होकर चाँदनी,
आपके साथ ही चला तारों का ये कारवाँ।

चाँद का रथ आपकी दामन के तले,
नूर उस चाँद का आपके साथ जले,
तेरी कदमों के संग निशाँ जिन्दगानी ये चले,
शमाँ जलती ही रहे जब तलक आप कहें।

तम के साए बिखरे हैं बिन आपके,
बुझ रहे हैं ये दिए बिन आस के,
बे-आसरा हो रहा चाँद बिन आपके,
जर्रे-जर्रे की रुकी है ये साँसे बिन आपके।

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

Wednesday 13 January 2016

तम जीवन का


छँटते नही रात के तम कभी,
व्यर्थ जाती मेहनत चाँद की भी,
रात्रि तम तमस घनघोर,
रौशनी चाँद की मद्धम चितचोर,
कुछ वश मे नही लाचार चाँदनी के भी?

काजल सम बादल नभ पर,
चाँदनी आभा को करते तितर बितर,
व्यर्थ कोशिश तारों के मंडली की भी,
रात्रि तम विहँसती हो मुखर,
कुछ वश मे नही लाचार तारों के भी?

तम जीवन का हरना हो तो,
खुद सूरज बन जग मे जलना होगा,
तम मिट जाएंगे चाँद तारों के भी,
जीवन हो जाएगा मुखर,
क्या वश मे है बनना सूरज इंसानों के भी?