Thursday 5 October 2017

शरद हंसिनी

नील नभ पर वियावान में,
है भटक रही.....
क्यूँ एकाकिनी सी वो शरद हंसिनी?

व्योम के वियावान में,
स्वप्नसुंदरी सी शरद हंसिनी,
संसृति के कण-कण में,
दे रही इक मृदु स्पंदन,
हैं चुप से ये हृदय,
साँसों में संसृति के स्तब्ध समीरण,
फिर क्युँ है वो निःस्तब्ध सी, ये कैसा है एकाकीपन!

यह जानता हूँ मैं...
क्षणिक तुम्हारा है यह स्वप्न स्नेह,
बिसारोगे फिर तुम मुझे,
भूल जाओगे तुम निभाना नेह,
टिमटिमाते से रह जाएंगे,
नभ पर बस ये असंख्य तारे,
एकाकी से गगन झांकते रह जाएंगे हम बेचारे!

व्योम के वियावान में,
शायद इसीलिए...!
भटक रही एकाकी सी वो शरद हंसिनी!

Wednesday 4 October 2017

कोलाहल

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
काँप उठी ये वसुन्धरा,
उठी है सागर में लहरें हजार,
चूर-चूर से हुए हैं, गगनचुम्बी पर्वत के अहंकार,
दुर्बल सा ये मानव,
कर जोरे, रचयिता का कर रहा मौन पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
कोलाहल के है ये स्वर,
कण से कण अब रहे बिछर,
स्रष्टा ने तोड़ी खामोशी, टूट पड़े हैं मौन के ज्वर,
त्राहिमाम करते ये मानव,
तज अहंकार, ईश्वर का अब कर रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
या है छलनी उस रचयिता का हृदय!
या पाप की अस्त का, फिर से हुआ है उदय!
या है यह मानव का ही स्व-पराजय!
विजय तलाशते ये मानव,
हो पराश्त, नतमस्तक स्रष्टा को रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?

Monday 2 October 2017

मौन अभ्यावेदन

मुखर मनःस्थिति, मनःश्रुधार, मौन अभ्यावेदन!

ढूंढता है तू क्या ऐ मेरे व्याकुल मन?
चपल हुए हैं क्यूँ, तेरे ये कंपकपाते से चरण!
है मौन सा कैसा तेरा ये अभ्यावेदन?

तू है निश्छल, तू है कितना निष्काम!
जीवन है इक छल, पीता जा तू छल के जाम!
प्रखर जरा मौन कर, तू पाएगा आराम!

मौन अभ्यर्थी ही पाता विष का प्याला!
कटु वचन, प्रताड़ना, नित् अश्रुपूरित निवाला!
मौन वृत्ति ने ही तुझको संकट में डाला!

भूगर्भा तू नहीं, तू है इक निश्छल मन,
तड़़पेगा तू हरपल, करके बस मौन अभ्यावेदन!
स्वर वाणी को दे, कर प्रखर अभ्यावेदन!

अग्निकुण्ड सा है यह, जीवन का पथ!
उसपार तुझे है जाना चढ़कर इस ज्वाला के रथ!
तू कर अभ्यावेदन, लेकर ईश की शपथ!

Thursday 28 September 2017

दुर्गे निशुम्भशुम्भहननी

अग्निज्वाला अनन्त अनन्ता अनेकवर्णा, पाटला,
अनेकशस्त्रहस्ता अनेकास्त्रधारिणी अपर्णा,अप्रौढा,
अभव्या अमेय अहंकारा एककन्या आद्य आर्या,
इंद्री करली पाटलावती मन ज्ञाना कलामंजीरारंजिनी ।

कात्यायनी कालरात्रि यति कैशोरी कौमारी क्रिया,
कुमारी घोररूपा चण्डघण्टा चण्डमुण्ड विनाशिनि ,
क्रुरा  चामुण्डा  चिता  चिति चित्तरूपा चित्रा चिन्ता,
बहुलप्रेमा प्रत्यक्षा जया जलोदरी ज्ञाना तपस्विनी।

त्रिनेत्र दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी दुर्गा देवमाता,
बुद्धि नारायणी निशुम्भशुम्भहननी पट्टाम्बरपरीधाना
पुरुषाकृति प्रत्यक्षा प्रौढा बलप्रदा बहुलप्रेमा बहुला
नित्या परमेश्वरी पाटला पाटलावती पिनाकधारिणी ।

बुद्धि बुद्धिदा ब्रह्मवादिनी ब्राह्मी भद्रकाली लक्ष्मी,
भाव्या मधुकैटभहंत्री महाबला महिषासुरमर्दिनि,
महातपा महोदरी मातंगमुनिपूजिता मातंगी माहेश्वरी,
मुक्तकेशी यति रत्नप्रिया रौद्रमुखी बहुला वाराही,
युवती विष्णुमाया वनदुर्गा विक्रमा विमिलौत्त्कार्शिनी।

वृद्धमाता वैष्णवी शाम्भवी शिवप्रिया शिबहुला,
शूलधारिणी सती सत्ता सत्या सत्यानन्दस्वरूपिणी
सर्वदानवघातिनी सर्वमन्त्रमयी सर्ववाहनवाहना,
सदागति  सर्वविद्या सर्वशास्त्रमयी सर्वासुरविनाशा
साध्वी सावित्री सुन्दरी सुरसुन्दरी सर्वास्त्रधारिणी।

Sunday 24 September 2017

किंकर्तव्यविमूढ

गूढ होता हर क्षण, समय का यह विस्तार!
मिल पाता क्यूँ नहीं मन को, इक अपना अभिसार,
झुंझलाहट होती दिशाहीन अपनी मति पर,
किंकर्तव्यविमूढ सा फिर देखता, समय का विस्तार!

हाथ गहे हाथों में, कभी करता फिर विचार!
जटिल बड़ी है यह पहेली,नहीं किसी की ये सहेली!
झुंझलाहट होती दिशाहीन मन की गति पर,
ठिठककर दबे पाँवों फिर देखता, समय का विस्तार!

हूँ मैं इक लघुकण, क्या पाऊँगा अभिसार?
निर्झर है यह समय, कर पाऊँगा मैं केसे अधिकार?
अकुलाहट होती संहारी समय की नियति पर,
निःशब्द स्थिरभाव  फिर देखता, समय का विस्तार!

रच लेता हूँ मन ही मन इक छोटा सा संसार,
समय की बहती धारा में मन को बस देता हूँ उतार,
सरसराहट होती, नैया जब बहती बीच धार,
निरुत्तर भावों से मैं फिर देखता, समय का विस्तार!

Saturday 23 September 2017

सैकत

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल,
ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल,
झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल,
डाली पे झूलते हुए ये नव दल,
मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल?

उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के सैकत!
ज्यूँ वो पल, यहीं कहीं रहा हो ढल!
मुरझाते हों जैसे झील में कमल,
सूखते हो डाल पे वो कोमल से दल,
हृदय कह रहा धड़क, चल आ तू कहीं और चल!

उड़ रही हर दिशा में, रंगीन से असंख्य सैकत,
बिंधते हृदय को, यादों के ये तीक्ष्ण सैकत,
नैनों में आ धँसे, कुछ हठीले से ये सैकत,
अभ्र पर छा चुके है नुकीले से ये सैकत,
जाऊँ किधर! ऐ दिल आता नही  कुछ भी नजर?

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

Wednesday 20 September 2017

प्रीत

मूक प्रीत की स्पष्ट हो रही है वाणी अब....

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में,
अंकित सदियों से मन के आईने में,
गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी,
आज अचानक फिर से लगी बोलनें।

मुखर हुई वाणी उस बिंब की,
स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी,
घटा मोह की फिर से घिर आई,
मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी।

प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो,
अमरलता सी फैली इस मन पर जो,
सदियों से मन में थी चुप सी वो,
मुखरित हो रही अब मूक सी वाणी वो।

आभा उसकी आज भी वैसी ही,
लटें घनी हो चली उस अमरलता की,
चेहरे पर शिकन बेकरारियाें की,
विस्मित जेहन में ये कैसी हलचल सी।

मोह के बंधन में मैं घिर रहा अब,
पीड़ा शिकन की महसूस हो रही अब,
घन बेकरारी की सावन के अब,
मुखरित हो रही प्रीत की परछाई अब।