Showing posts with label सैकत. Show all posts
Showing posts with label सैकत. Show all posts

Saturday 23 September 2017

सैकत

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल,
ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल,
झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल,
डाली पे झूलते हुए ये नव दल,
मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल?

उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के सैकत!
ज्यूँ वो पल, यहीं कहीं रहा हो ढल!
मुरझाते हों जैसे झील में कमल,
सूखते हो डाल पे वो कोमल से दल,
हृदय कह रहा धड़क, चल आ तू कहीं और चल!

उड़ रही हर दिशा में, रंगीन से असंख्य सैकत,
बिंधते हृदय को, यादों के ये तीक्ष्ण सैकत,
नैनों में आ धँसे, कुछ हठीले से ये सैकत,
अभ्र पर छा चुके है नुकीले से ये सैकत,
जाऊँ किधर! ऐ दिल आता नही  कुछ भी नजर?

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

Sunday 16 April 2017

गूंजे है क्युँ शहनाई

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

अभ्र पर जब भी कहीं, बजती है कोई शहनाई,
सैकड़ों यादों के सैकत, ले आती है मेरी ये तन्हाई,
खनक उठते हैं टूटे से ये, जर्जर तार हृदय के,
चंद बूंदे मोतियों के,आ छलक पड़ते हैं इन नैनों में...

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

ऐ अभ्र की वादियाँ, न शहनाईयों से तू यूँ रिझा,
तन्हाईयों में ही कैद रख, यूँ न सोए से अरमाँ जगा,
गा न पाएंगे गीत कोई, टूटी सी वीणा हृदय के,
अश्रु की अविरल धार कोई, बहने लगे ना नैनों से....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

निहारते ये नैन अपलक, न जाने किस दिशा में,
असंख्य सैकत यादों के, अब उड़ रही है हर दिशा में,
खलबली सी है मची, एकांत सी इस निशा में,
अनियंत्रित सा है हृदय, छलके से है नीर फिर नैनों में....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

Friday 15 April 2016

तन्हाई के ख्याल

मैं और मेरा मन, तन्हाई मे जाने किन ख्यालो के संग?

ख्यालों के निर्झर सरिता मे वो बहती,
कलकल छलछल पलपल हरपल वो करती,
जाने किन शिखरों से चलकर वो आती,
झिलमिल सांझ ढ़ले किस सागर में मिल जाती,
ख्यालों के विरान महल में बस मैं और मेरी तन्हाई।

टकराती रह रह कर हृदय के इस तट पर,
शिलाओं सा टूटता रहता मैं तिल तिल घिस-घिस कर,
यादों के सैकत बिछ जाते हृदय के तल पर,
गहरा सा मन मेरा शिलाचूर्ण से फिर जाता भर,
कभी रुक जाते वो झील सी ख्यालों में बह बहकर।

खिल उठती कमल सी वो उस ठहरी झील मे,
समेटती अपनी चंचलता पलभर को अपने मन में,
बिखेरती वो सुंदर सी आभा उस उपवन में,
सपनों का वो घन सदियों से मेरे मन प्रांगण में,
इक ख्याल बन कर उभरता हर पल मेरी तन्हाई में।

मैं और मेरा मन, तन्हाई मे जाने किन ख्यालो के संग?

Friday 18 March 2016

परत दर परत समय

परत दर परत सिमटती ही चली गई समय,
गलीचे वक्त की लम्हों के खुलते चले गए,
कब दिन हुई, कब ढ़ली, कब रात के रार सुने,
इक जैसा ही तो दिखता है सबकुछ अब भी ,
पर न अब वो दिन रहा, ना ही अब वो रात ढ़ले।

रेत की मानिंद उड़ता ही रहा समय का बवंडर,
लम्हों के सैकत उड़ते रहे धुआँ धुआँ बनकर,
अपने छूटे, जग से रूठे, संबंध कई जुड़ते टूटते रहे,
कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
धूँध सी छाई हर तरफ जिस तरफ ये नजर चले।

समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।