Thursday 23 November 2017

बर्फ के फाहे

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

व्यथित थी धरा, थी थोड़ी सी थकी,
चिलचिलाती धूप में, थोड़ी सी थी तपी,
देख ऐसी दुर्दशा, सर्द हवा चल पड़ी,
वेदनाओं से कराहती, उर्वर सी ये जमी,
सनैः सनैः बर्फ के फाहों से ढक चुकी.....

कुछ बर्फ, सुखी डालियों पर थी जमीं,
कुछ फाहे, हरी पत्तियों पर भी रुकी,
अवसाद कम गए, साँस थोड़े जम गए,
किरण धूप की, कही दूर जा छुपी,
व्यथित जमीं, परत दर परत जम चुकी....

यूँ ही व्यथा तभी, भाफ बन कर उड़ी,
रूप कई बदल, यूँ बादलों में उभरी,
कभी धुआँ, कभी रहस्यमयी सी आकृति,
अविरल बादलों में, अनवरत तैरती,
वेदनाओं से फिर, आक्रांत थी ये संसृति....

यूँ संसृति की जमीं पर, गिरे बर्फ के फाहे,
कुछ घाव भरे, कुछ दर्द उठे अनचाहे,
कभी तृप्त हुए, कभी उभरे हृदय पर छाले,
ठिठुरते से कोहरों में कभी रात गुजारी,
कोमल से फाहों में, वेदना मे घिरी संसृति...

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

Tuesday 21 November 2017

हाँ मनुष्य हूँ

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

मैं सर्वाहारी, स्तनपयी, होमो सेपियन्स हूँ!
निएंडरथल नहीं, क्रोमैगनाॅन मानव हूँ,
अमूर्त्त सोचने, ऊर्ध्व चलने, बातों में सक्षम हूँ,
तात्विक प्रवीणताएँ सारी हैं मुझमे,
जैव विवर्तन में श्रेष्ठ हूँ, हाँ, हाँ, मैं मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

योनियों मे श्रेष्ठ हूँ, मानव हूँ, कुलश्रेष्ठ हूँ,
84 लाख योनियों में बस 4 लाख हूँ,
अब कैसे समझाऊँ, किस तरह तुझको बतलाऊँ,
ईश्वर की संकल्पना में, इक मैं भी हूँ,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं झूठा हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

सुन लो, कुछ अपने मन में तुम भी बुन लो,
योनि, कितनी इस धरती पर सुन लो,
9 लाख जलचर, 20 लाख वृक्ष, 11 लाख कीड़े,
10 लाख पक्षी, 30 लाख जंगली पशु,
बस 4 लाख मनुष्य, हाँ, हाँ, यही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

पहनता हूँ कपड़े, सर्व विकसित जीव हूँ!
अपने अनुकूल परिवेश कर लेता हूँ,
कुछ खिलवाड़, कुछ दुश्वार प्रकृति से करता हूँ,
स्वार्थवश मस्तिष्क का दुरुपयोग भी,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं दुष्ट हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

वही धुन

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो पहला कदम, वो छम छम छम,
इस दहलीज पर, रखे थे जब तूने कदम,
इक संगीत थी गूंजी, गूंजा था आंगन,
छम छम नृत्य कर उठा था ये मृत सा मन,
वही प्रीत, वही स्पंदन, दे देना मुझको सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो चौखट मेरी, जो थी अधूरी सूनी,
अब गाते है ये गीत, करते है मेरी अनसुनी,
घर के कण-कण, बजते हैं छम छम,
फिर कोई गीत नई, सुना दे ऐ मेरे हमदम,
गीतों का ये शहर, मुझको प्राणों से है प्यारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो स्नेहिल स्पर्श, वो छुअन के संगीत,
वो नैनों की भाषा में गूंजते अबोले से गीत,
धड़कन के धक-धक की वो थपकी,
साँसों के उच्छवास संग सुर का बदलाव,
वही प्रारब्ध, वही ठहराव, वही अंत है सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

स्तब्ध हूँ, उस धुन से आलिंगनबद्ध हूँ,
नि:शब्द हूँ, अबोले उन गीतों से आबद्ध हूँ,
स्निग्ध हूँ, उन सप्तसुरों में ही मुग्ध हूँ,
विमुक्त हूँ, निर्जन मन के सूनेपन से मुक्त हूँ,
कटिबद्ध हूँ, उस धुन पर मैने ये जीवन है वारा.....

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

Sunday 19 November 2017

खिलते पलाश

काश! खिले होते, हर मौसम ही, ये पलाश...

चाहे, पुकारता किसी नाम से,
रखता नैनों में, इसे हरपल,
परसा, टेसू, किंशुक, केसू, पलाश,
या कहता, प्यार से, दरख्तेपल....

दिन बेरंग ये, रंगते टेसूओं से,
फागुन सी, होती ये पवन,
होली के रंगों से, रंगते उनके गेेसू,
होते अबीर से रंंगे, उनके नयन.....

रमते  इन त्रिपर्नकों में त्रिदेव,
ब्रह्मा, विष्णु और महेश,
नित दिन कर पाता, मैं ब्रम्हपूजन,
हो जाती नित, ये पूजा विशेष.....

दर्शन नित्य ही, होते त्रित्व के,
होता, व्याधियों का अंत,
जलते ये अवगुण, अग्निज्वाला में,
नित दिन होता, मौसम बसंत....

काश! खिले होते, हर मौसम ही, ये पलाश...
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पलाश.....

एक वृक्ष, जिसके आकर्षक फूलों की वजह से इसे "जंगल की आग" भी कहा जाता है। जमाने से, होली के रंग इसके फूलो से और अबीर पत्तों से तैयार किये जाते रहे है।

पलाश के तीन पत्ते भारतीय दर्शनशास्त्र के त्रित्व के प्रतीक है। इसके त्रिपर्नकों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास माना जाता है। 

पलाश के पत्तों से बने पत्तल पर नित्य कुछ दिनों तक भोजन करने से शारीरिक व्याधियों का शमन होता है।

Saturday 18 November 2017

कूक जरा, पी कहाँ...?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

छिपती छुपाती क्युँ फिरती तू,
कदाचित रहती नजरों से ओझल तू,
तू रिझा बसंत को जरा,
ऊँची अमुआ की डाली पर बैठी है तू कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

रसमय बोली लेकर इतराती तू,
स्वरों का समावेश कर उड़ जाती तू,
जा प्रियतम को तू रिझा,
मन को बेकल कर छिप जाती है तू कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

बूँदें बस अंबर का ही पीती तू,
मुँह खोल एकटक वो मेघ देखती तू,
धरती पर प्यासी तू यहाँ,
नक्षत्र स्वाती बिन प्यास बुझती ये कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

अनन्य प्रेम मेघ पर लुटाती तू,
बिन बारिश प्यासी ही मर जाती तू,
है बसंत भी प्यासा यहाँ,
डाली डाली तू छिपती फिरती है कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

आज क्युँ?

आज क्युँ ?
कुछ बिखरा-बिखरा सा लगता है,
मन के अन्दर ही, कुछ उजड़ा-उजड़ा सा लगता है,
बाहर चल रही, कुछ सनसन करती सर्द हवाएँ,
मन के मौसम में,
कुछ गर्म हवा सा शायद बहता है.......

आज क्युँ ?
कुछ खुद को समेट नहीं पाता हूँ मैं,
बस्ती उजड़ी है मन की, बसा क्युँ नहीं पाता हूँ मैं,
इन सर्द हवाओं में, उष्मा ये कैसी है मन में,
गुमसुम चुप सा ये,
कुछ बीमार तन्हा-उदास सा रहता है......

आज क्युँ ?
खामोश से इस मन में सवाल कई हैं,
खामोशी ये मन की, बस इत्तफाक सा लगता है,
सवालों के घेरे में, कैसे घिरा-घिरा है ये मन,
अबतक चुप था ये,
कुछ बेवशी के राज खोल रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ खुद से ही बेगाना हुआ हूँ मैं,
बेजार सा ये तन, मन से कहीं दूर सा दिखता है,
दर्द यही शायद, सह रहा आज तक ये मन,
सर्द सी ये हवाएँ,
कुछ चुभन के द॔श दे रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ अनचाही सी बेलें उग आई हैं,
मन की तरुणाई पर, कोई परछाई सा लगता है,
बिखरे हो टूट कर पतझड़ में जैसे ये पत्ते,
वैसा ही बेजार ये,
कुछ अनमना या बेपरवाह सा लगता है.......

Friday 17 November 2017

युग का जुआ

जतन से युग का जुआ, बस थामकर होगा उठाना....

खींचकर प्रत्यंचा,
यूँ धीर कर,
साध लेना वो निशाना.....

गर सिर्फ गर....!

बिंब उस लक्ष्य की,
इन आँखों में रची बसी,
लगन की साध से,
गर ये प्रत्यंचा रही कसी,
धैर्य का दामन,
छोड़ा नहीं तुमने कभी,
निगाहें गर सदा,
उस निशाने पर रही सधी।

फिर है डर क्या?
व्यर्थ न जाएगा ये प्रयत्न.....
ऊँगलियो में हैं जो दम,
सध ही जाएगा निशाना.....
बस खींचकर प्रत्यंचा, बिंध देना है वो निशाना.....

है कांधे पे तेरे, युग का ये जुआ,
जतन से थामकर,
लगन से होगा उठाना....

बस सिर्फ बस.....!

मंजिलों पे रहे नजर,
उन रास्तों की हो तुझे खबर,
थक न जाए ये बदन,
न ऊबे कहीं ये मन,
दिल में हो इक संबल,
अकेला मैं ही नही,
सभी साथ रहे हैं चल,
हित में सभी के,
ये युग भी रहा है बदल।

फिर न चिंता कोई?
प्रयत्न कर, युग का ये चरण,
विजयी हो काट लेंगे हम,
खींच लेंगे दूर तक,
जतन से युग का जुआ, बस साथ है मिलकर उठाना....

Thursday 16 November 2017

आत्मकथा

खुद को समझ महान, लिख दी मैने आत्मकथा!

इस तथ्य से था मैं बिल्कुल अंजान,
कि है सबकी अपनी व्यथा,
हैं सबके अनुभव, अपनी ही इक राम कथा,
कौन पढे अब मेरी आत्मकथा?

अंजाना था मैं लेकिन, लिख दी मैने आत्मकथा!

हश्र हुआ वही, जो उसका होना था,
भीड़ में उसको खोना था,
खोखला मेरा अनुभव, अधूरी थी मेरी कथा,
पढता कौन मेरी ऐसी आत्मकथा?

अधूरा अनुभव लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

अनुभव के है कितने विविध आयाम,
लघु कितना था मेरा ज्ञान,
लघुता से अंजान, कर बैठा था मैं अभिमान,
बनती महान कैसे ये आत्मकथा?

अभिमानी मन लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

टूटा ये अभिमान, पाया था तत्व ज्ञान,
लिखना तो बस इक कला,
पहले पूरी कर लूँ मै बोधिवृक्ष की परिक्रमा,
सीख लूँ मैं पहले सातों कला,
लिख पाऊंगा फिर मैं आत्मकथा!

उथला ज्ञान लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

बदल रहा ये साल

युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

यादों के कितने ही लम्हे देकर,
अनुभव के कितने ही किस्से कहकर,
पल कितने ही अवसर के देकर,
थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर,
कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल...

प्रशस्त प्रगति के पथ देकर,
रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर,
काम अधूरे से बहुतेरे रखकर,
निरंतर बढ़ने को कहकर,
युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

अपनों से अपनों को छीनकर,
साँसों की घड़ियों को कुछ गिनकर,
पीढी की नई श्रृंखला रचकर,
जन्म नए से युग को देकर,
सारथी युग का बनाकर, बदल रहा ये साल....

नव ऊर्जा बाहुओं में भरकर,
कीर्तिमान नए रचने को कहकर,
लक्ष्य महान राहों में रखकर,
आँखों में नए सपने देकर,
विकास पुरोधा बनकर, बदल रहा ये साल...

प्रस्तावों की इक सूची देकर,
मंत्र नए सबके कानों में कहकर,
अपनी मांग नई कुछ रखकर,
प्रण जन-जन से लेकर,
कुछ लेकर कुछ देकर, बदल रहा ये साल.....
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Accolade from "शब्दनगरी" / 17.11.2017
"बधाई हो! आपका लेख आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है"
हृदय तल से धन्यवाद शब्दनगरी....

Tuesday 14 November 2017

मुख़्तसर सी कोई बात

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

सांझ की किरण, रोज ही छू लेती है मुझे,
देखती है झांक कर, उन परदों की सिलवटों से,
इशारों से यूँ ही, खींच लाती है बाहर मुझे,
सुरमई सी सांझ, ढ़ल जाती है फिर आँखों में मेरी!
सिंदूरी ख्वाब लिए, फिर सो जाती है रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

झांकती है सुबह, उन खिड़कियों से मुझे,
रंग वही सिंदूरी, जैसे सांझ मिली हो भोर से,
मींचती आँखों में, सिन्दूरी सा रंग घोल के,
रंगमई सी सुबह, बस जाती है फिर आँखों में मेरी!
दिन ढ़ले फिर, है उसी सपने की बात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

रंग वही सिंदूरी, लाकर देना तुम मुझे,
मांग सजाऊँगा उसकी, रंग लाकर किरणों से,
किरणपूंज सी, वो आएँगे जब बाहों में,
चंपई वो रंग, बिखरती जाएगी इन राहों में मेरी!
सिंदूरी सांझ तले, कट जाएगी ये रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....